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________________ श्री संवेगरंगशाला ५५१ बुद्धि पैदा करता है। अविधि से पढ़ा हुआ, कुनयो के अल्पमात्र से अभिमान मूढ़ बना हुआ जनमत को नहीं जानता वह उसे विपरीत कहकर स्व-पर उभय का भी निश्चय रूप दुर्गति में पहुँचाता है। धर्मोपदेशक गुरू के गुण :-उपदेश देने वाले गुरू के गुण-(१) स्वशास्त्र पर शास्त्र के जानकार, (२) संवेगी, (३) दूसरों को संवेग प्रगट कराने वाले, (४) मध्यास्थ, (५) कृतकरण, (६) ग्राहणा कुशल, (७) जीवों के उपकार करने में रक्त, (८) दृढ़ प्रतिज्ञा वाला, (E) अनुवर्तक, और (१०) बुद्धिमान हो, वह श्री जैन कथित धर्म पर्षदा (सभा) में उपदेश देने के लिए अधिकारी है। उसमें : (१) स्वशास्त्र पर शास्त्र के जानकार :-परदर्शन के शास्त्रों से जैन धर्म की विशेषता को देखे, जाने, इससे वह श्री जैन धर्म में उत्साह को बढ़ावे, और श्री जैनमत का जानकार होने से समस्त नयों से सूत्रार्थ को समझाए एवं उत्सर्ग अपवाद के विभाग को भी यथास्थित बतलावे । (२) संवेग :- परमार्थ सत्य को कहने वाला होता है ऐसी प्रतीति असंवेगी में नहीं होती है, क्योंकि असंवेगी चरण-करण गुणों का त्याग करते अन्त में समस्त व्यवहार को भी छोड़ता है । सुस्थिर गुण वाले संवेग का वचन घी मद्य से सिंचन अग्नि के समान शोभता है । जब गुणहीन का वचन तेल रहित दीपक के समान नहीं शोभते हैं। (३) अन्य को संवेगजनक :-सदाचारी आचार की प्ररूपणा (उपदेश) में निःशंकता से बोल सके, आचार भ्रष्ट चारित्र को शुद्ध उपदेश दे, ऐसा एकान्त नहीं है। लाखों जन्म में श्री जैन वचन को मिलने के बाद उसे भाव से छोड़ देने में जिसको दुःख न हो उसे दूसरे दुःखी होते दुःख नहीं होता है। जो यथाशक्य आराधना में उद्यम करता हो, वही दूसरे को संवेग प्रगट करवा सकता है, (४) मध्यस्थ-मध्यस्थ रहने वाला, (५) कृत करण-दृढ़ अभ्यासी और, (६) ग्राहण कुशल- समझाने में चतुर । इन तीनों सामने आये अर्थों का श्रोता का अनुग्रह करे, (७) परोपकार में रक्तगलानि प्राप्ति बिना 'बार-बार वाचना दे' इत्यादि द्वारा शिष्यों को सूत्र अर्थ अति स्थिर परिचित दृढ़ करा दे, (८) दृढ़ प्रतिज्ञा वाला-अल्प ज्ञान वालों के समक्ष अपवाद का आचरण नहीं करे, परन्तु दृढ़ प्रतिज्ञा वाला हो, (E) अनुवर्तक–अलग-अलग क्षयोपशम वाले शिष्यों को यथा योग्य उपदेशादि द्वारा सन्मार्ग में चढ़ाये और (१०) मतिमान्-अवश्यमेव समस्त उत्सर्ग अपवाद के विषयों को और विविध मत के उपदेश योग्य, परिणत, अपरिणत या अतिपरिणत आदि शिष्यों को जाने । इस प्रकार उपदेश देने योग्यता वाले जानना।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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