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________________ श्री संवेगरंगशाला ५४६ निर्गुणता को यथार्थ चिन्तन किया हो, इससे जिसको संसार के प्रति वैराग्य हुआ हो और इससे सद्धर्म के उपदेशक गुरू महाराज की खोज करता हो, उस आत्मा का विषय है, उसे परीक्षा का अधिकार है । इसलिए भवभय से डरा हुआ और सद्धर्म में एक बद्ध लक्ष्य वाला भव्यात्मा ने दरिद्र जैसे धनवान को और समुद्र में डूबते जैसे जहाज की खोज करता है, वैसे इस संसार में परम पद मोक्ष नगर के मार्ग में चलते प्राणियों को परम सार्थवाह समान और सम्यग् ज्ञानादि गुणों से महान् गुरू की बुद्धिपूर्वक परीक्षा करनी चाहिए, जैसे जगत में हाथी, घोड़े आदि अच्छे लक्षणों से श्रेष्ठ गुण वाले माने जाते हैं, वैसे गुरू भी धर्म में उद्यमशील आदि लक्षणों से शुभ गुरू जानना । इस मनुष्य जन्म में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को साधने वाला होता है, वह सद्गुरू के उपदेश से कष्ट बिना प्राप्त करता है । इस जगत में उत्तम गुरू के योग से कृतार्थ बना हुआ योगी विशिष्ट ज्ञान से पदार्थों का जानकार बनता है । और शाप - बद्दुआ तथा अनुग्रह करने में चतुर बनता है । यदि तीन भवन रूपी प्रसाद में विस्तार होते अज्ञान रूपी अन्धकार के समूह को नाश करने के लिए समर्थ सम्यग् ज्ञान से चमकते रूपवान, पाप रूपी तितली को क्षय करने में कुशल और वांछित पदार्थ को जानने में तत्पर गुरू रूपी दीपक न हो तो यह बिचारा अन्धा, बहरा जगत कैसा होता -क्या करता ? 1 जैसे उत्तम वैद्य के वचन से व्याधि सम्पूर्ण नाश होती है, वैसे सद्गुरू के उपदेश से कर्म व्याधि भी नाश होती है, ऐसा जानना । कलिकाल से फँसे हुए जगत में, विविध वांछित फलों को देने में व्यसनी, अखण्ड गुण वाले गुरू महाराज साक्षात् कल्पवृक्ष के समान हैं । संसार समुद्र से तैरने में समर्थ और मोक्ष का कारणभूत सम्यक्त्व ज्ञान और चारित्र आदि गुणों से जो महान् है वह गुरू भगवन्त है । आर्य देश, उत्तम कुल, विशिष्ट जाति, सुन्दर रूप आदि गुणों से युक्त, सर्व पापों का त्यागी और उत्तम गुरू ने जिसको गुरू पद पर स्थापना किया है, उस प्रशम गुण युक्त महात्मा को गुरू कहा है । समस्त अनर्थों का भण्डार सुरापान और अशुचि मूलक मांस को यदि सदाकाल त्याग करे, उसका गुरुत्व स्पष्ट है । यदि शिष्य के समान गुरू को भी हल, खेत, गाय, भैंस, स्त्री, पुत्र और विविध वस्तुओं का व्यवहार हो तो उसके गुरुत्व से क्या लाभ ? जो पापारम्भ गृहस्थ शिष्य हो वही यदि गुरू को भी हो तो अहो ! आश्चर्य की बात है कि लीला मात्र में अर्थात् कष्ट बिना संसार समुद्र को उसने पार किया है । यहाँ कटाक्ष वचन होने से वस्तुतः वह डूबा है, ऐसा समझना । यदि प्राणान्त में भी सर्व प्रकार से पर पीड़ा होने की चिन्तन नहीं करे वह जीव घर,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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