SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ श्री संवेगरंगशाला लेना, परन्तु उसमें यदि पूर्व-पूर्व की नीति से कार्य असाध्य बने तो यथाक्रम दूसरी, तीसरी आदि नीतियों का यथा योग्य जहाँ-जहाँ जिसका प्रयोग हो, वहाँ-वहाँ उस तरह से सोच-विचार कर प्रयोग करना । क्योंकि यदि साम नीति से कार्य होता हो तो भेद नीति का उपयोग नहीं करना, और भेद नीति में साम या दाम उपयोग नहीं करना। इसी प्रकार दाम आदि अन्य नीति का उपयोग नहीं करना । और नीति को सदैव प्राणप्रिय पत्नि के समान रक्षा करना, और अन्याय रूप दुष्ट शत्रु के समान हमेशा रोकना, वस्त्र, आहार पानी आभूषण, शय्या, वाहन आदि का भोग करते पूर्व उसमें विष का विकार है या नहीं ? वह अप्रमत्त भाव से मृगराज आदि पक्षियों से जान लेना। विष की परीक्षा : तमरू, तोता और मैना ये पक्षी प्रकृति से ही नजदीक में रहे सर्प का जहर देखकर उद्विग्न होकर करूण स्वर से रोते हैं। विष को देखकर चकोर के आँखों में तुरन्त विरागी बनती है (बन्द हो जाती है) कौंच पक्षी स्पष्ट रूप में नाचता है, और मत्त कोकिल मर जाता है। भोजन करने के इच्छक अन्न की परीक्षा के लिए थोड़ा आहार अग्नि में डालकर उसके चिन्ह भी सम्यग् रूप से जान लेना। यदि उसमें विष हो उसकी ज्वाला धुयें जैसी हो जाती है, अग्नि श्याम हो जाये और शब्द फट कर जैसे निकले, और ऐसे भोजन को स्पर्श करने से मक्खी आदि निश्चय रूप मर जाती है। तथा विष मिश्रित अन्न में से जल्दी पानी नहीं छटता है जल्दी गीला नहीं होता, रंग जल्दी बिगड़ जाता है और जल्दी शीतल होता है । विष मिश्रित जल में कोयले का रंग आ जाता है, दही में श्याम और दूध में ताम्बा जैसे सामान्य लाल रेखायें हो जाती हैं। विष मिश्रित सर्व गीले पदार्थ सूखने लगते हैं। सूखे पदार्थों का रंग बदल जाए और कठोर हो वह कोमल तथा कोमल हो वह कठोर हो जाते हैं। आवरण या ढ़ेर वाली आदि वस्तु में दाग हो जाते हैं और लोह, मणि आदि विष से मेल समान कलुषित हो जाता है । इस तरह हे पुत्र । सामान्यतया शास्त्र युक्ति से विष मिश्रित पदार्थों को जानकर उसे दूर से त्याग करना। और चार से छह कान में बात न जाए इस तरह गुप्त मंत्रणा करना, देश और काल के तारतम्य को जानने में कुशल बनना। उत्तम पदार्थों का कोई भी दान ऐसे वैसे को नहीं करना, और दान करे तो भी पत्रिता देखना। सर्व कार्यों को अच्छी तरह परीक्षापूर्वक करना, उसमें भी सन्धि-विग्रह की परीक्षा विशेषतया करना, सर्वन औचित्य को जानना, कृतज्ञ, प्रियभाषी और सर्व विषय में उचित अनुचित, पानापान कार्याकार्य, वाच्यावाच्य आदि का ज्ञाता बनना, श्रेष्ठ साधु के समान हे पुत्र ! सदा निद्रा, भूख और तृषा का विजय सहन करना, सर्व
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy