SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 562
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला ५३६ प्रकार का दुःखी देखकर पूर्व स्नेह से वह शिवकुमार देव उसके पास आकर कहने लगा कि-हे भद्र ! क्या तू मुझे जानता है कि नहीं इससे वह संभ्रमपूर्वक बोला कि मनोहर रूप धारक तुझ देव को कौन नहीं जानता ? तब देव ने पूर्व जन्म के रूप को उसने यथा स्थित दिखाई, इससे वह उसे सम्यक प्रकार से जाना और नेत्रों को कुछ खोलकर बोला-हे भाई! तूने यह दिव्य देव ऋद्धि किस तरह से प्राप्त की है वह मुझे कहो। इससे देव ने कहा कि हे भद्र ! मैंने विविध दुष्कर तप, स्वाध्याय, ध्यान आदि संयम के योग से शरीर को इस तरह से कष्ट दिया था कि जिससे इस ऋद्धि को प्राप्त की है। और अनेक प्रकार से लालन पालन करने से शरीर को पुष्ट बनाने वाला, धन स्वजनादि के लिए सदा पाप को करते, शिक्षा देने पर भी धर्म क्रिया में प्रमादाधीन बने तूने किस तरह से पाप वर्तन किया, जिससे ऐसा संकट आ गया। तूने यह भी नहीं जाना कि यह शरीर जीव से भिन्न है और धन स्वजन भी नश्चय ही संकट में रक्षण नहीं कर सकते हैं। इसी कारण से ही हे भद्रक ! देह में दुःख अवश्यमेव महाफल रूप है। इस प्रकार चिन्तन करते मुनिराज शीत, ताप, भूख आदि वेदनाएँ सम्यक् रूप से सहन करते हैं। सुलभ ने कहा कि-यदि ऐसा ही है तो हे भाई ! अब भी उस मेरे शरीर को तू पीड़ा कर जिससे मैं सुखी बनूं । देव ने कहा-भाई ! जीव रहित उसे पीड़ा करने से क्या लाभ है ? उससे कोई भी लाभ नहीं है, अतः अब पूर्व में किये कर्मों को विशेषतया सहन कर । इस प्रकार दुःख का अशक्य प्रतिकार जानकर उसे समझाकर देव स्वर्ग में गया और सुलस चिरकाल नरक में रहा। इसलिए हे क्षपक मुनि । शरीर, धन और स्वजनों को भिन्न समझकर जीव दया में रक्त तू धर्म में ही उद्यमी बन । ६. अशुचि भावना :-यदि तत्त्व से शरीर से जीव की भिन्नता है तो स्वरूप में सिद्ध अवस्था वाले जीव द्रव्य भाव से पवित्र है। अन्यथा शरीर से जीव यदि भिन्न न हो तो शरीर का हमेशा अशुचित्व होने से जीव को निश्चय से द्रव्यभाव से शुचित्व किसी तरह नहीं होता है। पूनः शरीर का अशुद्धत्व इस प्रकार है--प्रथम ही शुक्र शोषित से उत्पन्न होने से, फिर निरन्तर माता के अपवित्र रस के आस्वादन द्वारा, निष्पत्ति होने से, जरायु के पट में गाढ़ लपेटा हुआ होने से, योनि मार्ग से निकलने से, दुर्गंधमय स्तन का दूध पीने से, अपने अत्यन्त दुर्गंधता से, सैंकड़ों रोगों की व्याकुलता से, नित्यमेव विष्टा और मूत्र के संग्रह से और नौ द्वारों से हमेशा झरते अति उत्कट वीभत्स मलिनता से शरीर अपवित्र है। अशुचि से स्पृष्ट भरा हुआ घड़े के समान शरीर को समस्त तीर्थों के सुगन्धी जल द्वारा जीवन तक धोने पर भी, थोड़ी भी शुद्धि नहीं होती
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy