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________________ श्री संवेगरंगशाला ४. एकत्व भावना :-आत्मा अकेला ही है, एक उसके मध्यस्थ भाव बिना शेष सर्व संयोग जन्य प्रायःकर दुःख का कारण रूप है । क्योंकि संसार में सुख या दुःख को अकेला ही भोगता है, दूसरा कोई उसका नहीं है और तू भी अन्य किसी का नहीं है। शोक करते स्वजनों के मध्य से वह अकेला ही जाता है। पिता, पुत्र, स्त्री या मित्र आदि कोई भी उसके पीछे नहीं जाता है। अकेला ही कर्म का बन्धन करता है और उसका फल भी अकेला ही भोगता है। अवश्यमेव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और जन्मान्तर में अकेला ही जाता है। कौन किसके साथ में जन्मा है ? और कौन किसके साथ में परभव में गया है ? कौन किसका क्या हित करते हैं ? और कौन किसका क्या बिगाड़ता है ? अर्थात् कोई किसी का साथ नहीं देता, स्वयं अकेला ही सुख दुःख भोगता है। अज्ञानी मानव परभव में गये अन्य मनुष्य का शोक करते हैं, परन्तु संसार में स्वयं अकेला दुःखों को भोगते अपना शोक नहीं करता है। विद्यमान भी सर्व बाह्य पदार्थों के समूह को छोड़कर शीघ्र परलोक से इस लोक में अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है। नरक में अकेला दुःखों को सहन करता है, वहाँ नौकर और स्वजन नहीं होते हैं। स्वर्ग में सुख भी अकेला ही भोगता है, वहाँ उसके दूसरे स्वजन नहीं होते हैं। संसार रूपी कीचड़ में अकेला ही दु:खी होता है, उस समय उस बिचारे के साथ सुख दुःख को भोगने वाला अन्य कोई इष्ट जन नजर भी नहीं आता है। इसलिए ही कठोर उपसर्गों को दुःखों में भी मुनि दूसरे की सहायता की इच्छा नहीं करते हैं, परंतु श्री महावीर प्रभु के समान स्वयं सहन करते हैं । वह इस प्रकार : श्री महावीर प्रभु का प्रबन्ध अपने जन्म द्वारा तीनों लोक में महा महोत्सव प्रगट करने वाले, एवं प्रसिद्धि कुंड गाँव नामक नगर के स्वामी सिद्धार्थ महाराज के पुत्र श्री महावीर प्रभु ने भक्ति के भार से नमते सामन्त और मन्त्रियों के मुकुट मणि से स्पर्शित पादपीठ वाले और आज्ञा पालन करने की इच्छा वाले, सेवक तथा मनुष्यों के समूह वाले राज्य को छोड़कर दीक्षा ली। उस समय जय-जय शब्द करते एकत्रित हुये देवों ने उनकी विस्तार से पूजा भक्ति की और उन्होंने प्रेम से नम्र भाव रखने वाले स्वजन वर्ग को छोड़ दिया, फिर दीक्षा लेकर दीक्षा के प्रथम दिन ही कुमार गाँव के बाहर प्रदेश में काउस्सग्ग ध्यान में रहे उस प्रभु को कोई पापी गवाले ने इस प्रकार कहा कि-हे देवार्य ! मैं जब तक घर जाकर नहीं आता तब तक तुम मेरे इन बैलों को अच्छी तरह से देखते रहना। काउस्सग्ग ध्यान में रहे जगत् गुरू को ऐसा कहकर वह चला गया। उस समय यथेच्छ
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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