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________________ ५३४ श्री संवेगरंगशाला अपने स्थान पर गया और साधु भी वहाँ से विहार कर गये। इस प्रकार हे क्षपक मुनि ! संसार जन्य समस्त वस्तुओं में राग बुद्धि का त्याग कर एकाग्र चित्त वाले तू अशरण भावना का सम्यग् चिन्तन मनन कर । अब यदि प्रत्येक की वस्तु का चिन्तन करते प्राणियों का इस संसार में कोई भी शरणभूत नहीं है, तो उस कारण से ही 'संसार अति विषम है' ऐसा समझ उसे आगे कहते ३. संसार भावना :-इस संसार में श्री जिनवचन से रहित, मोह के महा अन्धकार के समूह से पराभव प्राप्त करते और फैलती हुई विकार की वेदना से विवश होकर सर्व अंग वाले जीव एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, जल चर, स्थल चर, खेचर आदि विविध तिर्यंच योनियों में, तथा समस्त देव और मनुष्यों की योनियों में तथा सात नरकों में अनेक बार भ्रमण किया है, वहाँ एक-एक जाति में अनेक बार विविध प्रकार के वध, बन्धन, धनहरण, अपमान, महारोग, शोक और सन्ताप को प्राप्त किया। ऊर्ध्व, तिर्छा और अधोलोक में भी कोई ऐसा एक आकाश प्रदेश नहीं होगा कि जहाँ जीव ने अनेक बार जन्म, जरा, मरण आदि प्राप्त नहीं किया हो। भोग सामग्री, शरीर के और वध बन्धनादि के कारण रूप अनेक बार समस्त रूपी द्रव्यों को भी पूर्व में प्राप्त किया है और संसार में भ्रमण करते जीव को अन्य सर्व जीव से स्वजन, मित्र, स्वामी, सेवक और शत्रु रूप में अनेक बार सम्बन्ध किए हैं। हा ! उद्वेग कारक संसार को धिक्कार है कि जहाँ अपनी माता भी मरकर पुत्री बनी और पिता भी मरकर पुनः पुत्र होता है । जिस संसार में सौभाग्य और रूप का गर्व करते यूवान भी मरकर वहीं अपने शरीर में ही कीड़े रूप में उत्पन्न होता है और जहाँ माता भी पशु आदि में जन्म लेकर अपने पूर्व पुत्र का मांस भी खाते हैं । अरे ! दुष्ट संसार में ऐसा भी अन्य महाकष्ट कौन-सा है ? स्वाभी भी सेवक और सेवक भी स्वामी, निजपुत्र भी पिता होता है और वहाँ पिता भी वैर भाव से मारा जाता है, उस संसार स्वरूप को धिक्कार हो। इस प्रकार विविध आश्रयों का भण्डार इस संसार के विषय में कितना कहूँ ? कि जहाँ जीव तापस सेठ के समान चिरकाल दुःखी होता है । वह इस प्रकार : तापस सेठ की कथा कौशाम्बी नगरी में सद्धर्म से विमुख बुद्धि वाला अति महान् आरम्भ करने में तत्पर अति प्रसिद्ध तापस नामक सेठ रहता था। घर की मर्जी से अति आसक्त वह मरकर अपने ही घर में सूअर रूप उत्पन्न हुआ और उसे वहाँ पूर्व
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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