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________________ ५३० श्री संवेगरंगशाला यहाँ प्रश्न करते हैं कि यह भावना भी अन्तर की धीरता के लिए बाह्य कारण की अपेक्षा रखता है। क्योंकि उद्विग्न मन वाला अल्प भी शुभ ध्यान को करने में समर्थ नहीं होता है। इसलिए ही कहा जाता है कि मन पसन्द भोजन, और मन पसन्द घर होने पर अविषादी-अखण्ड मन योग वाले मुनि मनोज्ञ ध्यान को कर सकते हैं। इसलिए अपेक्षित कारण सामग्री बिना भावना भी प्रगट नहीं होती है। इसका उत्तर देते हैं कि-यह तुम्हारा कथन केवल मन के निरोध करने में असमर्थ मुनि के उद्देश्य से सत्य है, परन्तु कषायों को जीतने वाला जो अति वीर्य और योग के सामर्थ्य से मन के वेग को रोकने वाला है जो अन्य से प्रगट की हुई और बढ़ती तीव्र वेदना से शरीर में व्याकुलित होते कषाय मुक्त स्कंदक के शिष्यों के समान शुभ ध्यान को अल्पमात्र भी खंडित नहीं करते उनको बाह्य निमित्त से कोई प्रयोजन नहीं है। शुभ और अशुभ दोनों भाव स्वाधीन हैं, इसलिए शुभ करना श्रेष्ठ है । ऐसा पंडित कौन सा होगा कि स्वाधीन अमृत को छोड़कर जहर को स्वीकार करेगा। अतः हे देवानु प्रिय ! 'मुझे यह मोक्ष प्रिय है' ऐसा निश्चय करके मोक्ष में एक दृढ़ लक्ष्य वाला तू हमेशा भाव प्रधान बन । यह भावना संसार में भव की भयंकरता से दुःखी हआ उत्तम भव्यों द्वारा भावित करने से इसको नियुक्ति (व्युत्पत्ति) सिद्ध नाम भी (भावना) शब्द बनता है। निश्चय जो एकान्त शुभ भाव है वही भावना है और जो भावना है, वही एकान्त शुभ भाव भी है। ये भाव बारह प्रकार के हैं अर्थात् वह भावना प्रकार की है, वह भाव और भावना भी संवेग रस की वृद्धि से शुभ बनता है। अतः उस भाव को प्रगट करने के लिए क्रमशः (१) अनित्य भावना, (२) अशरण भावना, (३) संसार भावना, (४) एकत्व भावना, (५) अन्यत्व भावना, (६) अशुचि भावना, (७) आश्रव भावना, (८) संवर भावना, (६) कर्म निर्जरा भावना, (१०) लोकत्व भावना, (११) बोधि दुर्लभ भावना और (१२) धर्म गुरु दुर्लभता भावना का चिन्तन करना चाहिए। इन बारह भावनाओं में सर्व प्रथम हमेशा संसार जन्य समस्त वस्तु समूह का अनित्य भावना का इस तरह चिन्तन कर वह इस प्रकार :' . १. अनित्य भावना :-अहो ! अर्थात् आश्चर्य है कि यौवन बिजली के समान अस्थिर है, सुख संपदाएँ भी संध्या के बादल के राग की शोभा समान हैं और जीवन पानी के बुलबुला समान अत्यन्त अनित्य ही है। परम प्रेम के पात्र माता, पिता, पुत्र और मित्रों के साथ जो संयोग है वह सब अवश्य ही अनित्य से युक्त क्षणिक है । और शरीर सौभाग्य, अखण्ड पंचेन्द्रिय प्राप्त होना,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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