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________________ ५२८ श्री संवेगरंगशाला रहित, और अनुपमता वाले, सर्व दुःखों से रहित, पापरहित, रागरहित, कलेश से रहित, एकत्व में रहने वाले, अक्रिययुक्त, अमुत्याता और अत्यन्त रथैर्ययुक्त तथा सर्व अपेक्षा से रहित, समस्त क्षायिक गुण वाले, नष्ट परतन्त्र वाले, और तीन लोक में चुडामणि से युक्त, इस तरह तीन लोक से वन्दनीय, सर्व सिद्ध परमात्माओं के गुणों का तू हमेशा त्रिविध-त्रिविध सम्यक् अनुमोदन कर। ___ एवं सर्व आचार्यों का जो सुविहित पुरुषों ने सम्यक् आचरण किया हुआ, प्रभु के पाद प्रसाद से भगवन्त बने, पाँच प्रकार से आचार का दुःख रहित, किसी प्रकार के बदले की आशा बिना, समझदारी पूर्वक सम्यक् पालन करने वाले, सर्व भव्य जीवों को उन आचारों की सम्यक् उपदेश देने वाले और उन भवात्मों को नया आचार प्राप्त करवा कर उन्हीं आचारों का पालन करवाने वाले श्री आचार्य के सर्व गुणों का तू सम्यक् प्रकार से अनुमोदन कर। __इसी प्रकार पंचविध आचार पालन करने में रक्त और प्रकृति से ही परोपकार करने में ही प्रेमी श्री उपाध्यायों को भी आचार्य श्री के जवाहिरात की पेटी समान है जो अंग उपांग और प्रकीणक आदि से युक्त श्री जिन प्रणित बारह अंग सूत्रों को स्वयं सूत्र अर्थ और तदुमय से पढ़ने वाले और दूसरों को भी पढ़ाने वाले श्री उपाध्याय महाराज के गुणों को हे क्षपक मुनि ! तू सदा सम्यक् रूप त्रिविध-त्रिविध अनुमोदन कर। इसी तरह कृतपुण्य चारित्र चूड़ामणि धीर, सुगृहित नाम धेय, विविध गुण रत्नों के समूह रूप और सुविहित साधू भी निष्कलंक, विस्तृतशील से शोभायमान, यावज्जीव निष्पाप आजीविका से जीने वाले, तथा जगत के जीवों के प्रति वात्सल्य भाव रखने वाले अपने शरीर में ममत्व रहित रहने वाले, स्वजन और परजन में समान भाव को रखने वाले और प्रमाद के विस्तार को सम्यक् प्रकार से रोकने वाले, सम्पूर्ण प्रशम रस में निमग्न रहने वाले, स्वाध्याय और ध्यान में परम रसिकता वाले, पूर्ण आज्ञाधीनता रहने वाले, संयम गुणों में एक बद्ध लक्ष्य वाले, परमार्थं की गवेषणा करने वाले, संसारवास की निर्गुणता का विचारणा रखने वाले और इससे ही परम संवेग द्वारा उसके प्रति परम वैराग्य भावना प्रगट करने वाले तथा संसार रूप गहन अटवी से प्रतिपक्षभूत रक्षक क्रिया कलाप करने में कुशल इत्यादि साधु गुणों का तू त्रिविध-त्रिविध हमेशा सम्यक् प्रकार से अनुमोदन कर। तथा समस्त श्रावक भी प्रकृति से ही उत्तम धर्म प्रियतायुक्त हैं, श्री जन वचनरूपी धर्म के राग से निमग्न शरीर के अस्थि, मज्जा वाला, जीव, अजीव आदि समस्त पदार्थों के विषय को जानने में परम कुशलता प्राप्त करने
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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