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________________ श्री संवेगरंगशाला इस कारण से ही भव भीरू मनवाले महामुनियों को सर्व संग को त्यागकर मोक्ष सुख के लिए सतत् उद्यम करना चाहिये । यदि इस संसार में इष्ट वियोग आदि थोड़ा भी दुःख न हो तो कोई भी मोक्ष के लिए दुष्कर तपस्या नहीं करे। इसे दृढ़तापूर्वक विचार करो। और स्त्रियों में जो राग है वह भी किंपाक के फल समान प्रारम्भ में मधुर और अन्त कड़वा है। असंख्य भवों को बढ़ाने वाली मन के शभाशय को नाश करने वाली और उत्तम मुनिजनों के त्याग करने योग्य स्त्री को मन से भी याद करना चाहिये । इस जगत में जो कोई भी संकट है जो कोई दुःख है और जो कोई निन्दापात्र है उन सबका मूल एक यह स्त्री को ही कहा है। भव समुद्र का पार भी उन्होंने ही किया है, और उन्होंने ही सच्चारित्र से पृथ्वी को पवित्र किया है जिन्होंने ऐसी स्त्री को दूर से त्यागा है। इसलिए हे महानुभावों! अति निपुण बुद्धि से विचार कर, सदा धर्म-धन को प्राप्त करे, और उस व्यापार का उत्कंठा से आचरण करे। प्रभु ने जब ऐसा कहा, तब सविशेष बढ़ते शुभ भाव वाले राजा नमस्कार करके और दोनों हस्त कमल को मस्तक पर लगाकर कहने लगा कि-हे नाथ ! प्रथम निजपुत्र को राज्याभिषेक करूंगा, उसके बाद आपके चरण कमल में संयम स्वीकार करूँगा। त्रिभुवन गुरु ने कहा-हे राजन् ! तुम्हें ऐसा करना योग्य है, क्योंकि स्वरूप को जानने वाले ज्ञानी संसार में अल्प भी राग नहीं करते हैं। फिर जिनेश्वर भगवान के चरणों में नमन करके राजा ने अपने महल में जाकर सामंत, मंत्रियों आदि मुख्य मनुष्यों को बुलाकर गद्-गद् शब्दों में कहा कि-अहो ! मुझे अब दीक्षा लेने की बुद्धि जागत हुई है, इसलिए मैंने सत्ता के मद से अथवा अज्ञानता से जो कोई तुम्हारा अपकार रूप आचरण कुछ भी किया हो वह सर्व को खमाता हूँ मुझे क्षमा करना, और इस राज्य की वृद्धि करना। इस तरह उनको शिक्षा देकर जब शुभ मुहर्त आया, उस पवित्र हिन महा महोत्सवपूर्वक जयसेन पुत्र को राज्य के ऊपर स्थापन किया। फिर सामंत, मन्त्रीमण्डल आदि मुख्य परिजन सहित स्वयं स्नेह से उस नये राजा को दोनों हाथ की अंजलि से नमन करके हित शिक्षा दी कि : स्वभाव से ही सदाचार द्वारा शोभते हे वत्स ! यद्यपि तुझे कुछ भी सिखाने की जरुरत नहीं है, फिर भी मैं कुछ थोड़ा कहता हूँ कि हे पुत्र! स्वामी, मन्त्री, राष्ट्र, वाहन, भण्डार, सेना और मित्र ये सातों के परस्पर उपकार से यह राज्य श्रेष्ठ बनता है। अतः सत्त्व आचरण कर और बुद्धि से
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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