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________________ ५२६ श्री संवेगरंगशाला किया और छोड़ा उन सबको हे क्षपक मुनि ! त्याग कर। लोभ के वश होकर तूने धन को प्राप्त करके जो पाप स्थान में उपयोग किया उस सर्व का भी सम्यक् रूप में त्याग कर। भूत भविष्य वर्तमान काल में जो-जो पापारम्भ की प्रवृत्ति की उन सर्व का अवश्यमेव तु सम्यक् रूप त्याग कर । जिन-जिन श्री जैन वचनों को असत्य कहा, असत्य में श्रद्धा की अथवा असत्य वचन का अनुमोदन किया हो, उन सबकी भी गर्दा कर । यदि क्षेत्र, काल आदि के दोषों से श्री जैन वचन का सम्यग् आचरण नहीं कर सका हो, अवश्यमेव जो मिथ्या क्रिया में राग किया हो और सम्यक क्रिया के मनोरथ भी नहीं किया हो, इसलिए हे सुन्दर मुनि! तु बार-बार सविशेष सम्यक प्रकार से निन्दा कर। हे क्षपक मुनिवर्य ! अधिक क्या कहें ? तू तृण और मणि में, तथा पत्थर और सुवर्ण दृष्टि वाला, शत्रु और मित्र में समान चित्त वाला होकर संवेग रूप महाधन वाला तू सचित अचित अथवा मिश्र किसी वस्तु के कारण जो पाप किया हो उसे भी त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर। पर्वत, नगर, खान, गाँव, विश्रान्ति गृह, विमान तथा मकान अथवा खाली आकाश आदि में, उसके निमित्त ऊर्व, अधो या ति लोक में, भूत, भविष्य या वर्तमान काल में एवं शीत, ऊष्ण और वर्षा काल में किसी प्रकार से भी, रात्री अथवा दिन में औदयिकादि भावों में रहते, अति राग द्वेष और मोह से सोते या जागते, इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में तीव्र, मध्यम, या जघन्य, सूक्ष्म या बादर, दीर्घ अथवा अल्पकाल स्थिति वाला, पापनुबन्धी यदि कोई भी पाप मन, वचन, या काया से वह किया, करवाया या अनुमोदन किया उसे श्री सर्वज्ञ भगवन्त के वचन 'यह पाप है, गर्दी करने योग्य है और त्याग करने योग्य है।' इस तरह सम्यग् रूप जानकर, दुःख का सम्पूर्ण क्षय करने के लिए श्री अरिहन्त, सिद्ध, गुरू, और संघ की साक्षी में उन सर्व का सर्व प्रकार से सम्यक् निन्दा कर । गर्दा कर ! और प्रतिक्रमण कर ! इस प्रकार आराधना में मन लगाने वाला और मन में बढ़ते संवेग वाले हे क्षपक मुनि ! तू समस्त पाप की शुद्धि के लिए मुख्य अंगभूत मिच्छामि दुक्कड़म भाव पूर्वक बोल ! पुनः भी मिच्छामि दुक्कड़म को ही बोल और तीसरी बार भी मिच्छामि दुक्कड़म इस तरह बोल । और पुनः उस पापों को नहीं करने का निश्चय रूप स्वीकार कर । इस प्रकार दुष्कृत गर्दा नामक बारहवें अन्तर द्वार का वर्णन किया है। अब तेरहवाँ सुकृत को अनुमोदना द्वार कहता हूँ। वह इस प्रकार : तेरहवाँ सुकृत अनुमोदना द्वार : हे क्षपक मुनिवर्य ! महारोग के समूह से व्याकुल शरीर वाले रोगी के समान शास्त्रार्थ में कुशल वैद्य के कथनानुसार
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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