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________________ ३० श्री संवेगरंगशाला तरह मानता हुआ और 'वे यह भगवान पधारे हैं कि जिन्होंने स्वप्न में मुझे पर्वत के शिखर ऊपर आरूढ़ किया है, अत: उनके द्वारा मैं संसार का पारगामी बनूंगा ।' ऐसा चिन्तन करते राजा उन उद्यानपालकों को साढ़े बारह लाख सोने की मोहर प्रेमपूर्वक दान देकर जल्दी ही सारा अंतपुर और नगर लोगों से घिरे हुए तथा याचकों से स्तुति करवाता हाथी ऊपर बैठकर जगद् गुरू को वंदन करने के लिए नगर में से चला, फिर दूर से भगवान के छत्र ऊपर छत्र देखकर प्रसन्न मनवाला वह छत्र चामरादि राज चिन्ह को छोड़कर पांच प्रकार के अभिगम सहित उत्तर दिशा के द्वार से समव सरण में प्रवेश किया, हर्ष के आवेश से विकसित नेत्रों वाला वह राजा प्रभु की तीन प्रदक्षिणा देकर पृथ्वी पीठ को स्पर्श करते मस्तक द्वारा बारम्बार नमस्कार करके और हस्तपल्लव ललाट पर लगाकर स्तुति करने लगा कि : “निर्मल केवल ज्ञान के प्रकाश द्वारा मिथ्यात्व रूपी भयंकर अंधकार के विस्तार को नाश करने वाले हे भगवन्त ! आपकी जय हो ! फैले हुए प्रबल कलिकाल रूपी बादलों को बखेरने में महावायु के समान आपकी जय हो ! उग्र पवन के समान महावेग वाले इन्द्रियों रूपी घोड़ों समूह को वश करने से आप तीन भवन में प्रसिद्ध हे भगवन्त ! आपकी जय हो ! तीनों जगत में प्रसिद्ध सिद्धार्थ राजा के कुलरूपी कमल को खिलने के लिए सूर्य समान आपकी जय हो ? जिनके सूर्य समान उग्र महान् प्रताप से कुतीर्थियों की महीमा नष्ट हुई ऐसे आप श्री की जय हो ? युद्ध, रोग, अशिव आदि के उपशम भाव में समर्थ और केवल आपका ही नामोच्चार करने योग्य हे देव ! आपकी जय हो ! हे देवन्द्रों के समूह से वंदनीय, दृढ़ राग द्वेष रूपी काष्ट को चीरने में आरा तुल्य और मोक्ष सुख आपके हाथ हैं ऐसे हे महावीर परमात्मा आप विजयी हो ! और हे अरिहंत देव ! उपसंग समूह के सामने भी आपकी अक्षुब्धता - स्थिरता गजब की थी तो आपके चरण अंगुली दबाने मात्र से भी चलित शिखर वाले मेरू पर्वत की उपमा आपको कैसे दे ? हे नाथ ! आपका तेज और सौम्यता अद्वितीय है उसकी उपमा सूर्य और चन्द्र से कैसे दे सकते हैं ? क्योंकि दिन और रात के अन्तिम समय में सूर्य और चन्द्र मन्द अल्प तेज जाता है परन्तु आपका तेज और सौम्यता अखण्ड है । हे जिनेश्वर भगवान ! आपकी गम्भीरता भी महान् है, जिससे दुष्ट जीवों के क्षोभ को नहीं छुपा सकते हैं, तो वह गम्भीरता समुद्र के साथ उपमा कैसे दे सकते हैं, समुद्र को गम्भीरता सामान्य है जबकि गम्भीरता सर्वश्रेष्ठ है । इस तरह सारी उपमाएँ अति
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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