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________________ श्री संवेगरंगशाला ४६५ ताप का आच्छादन कुछ भी नहीं है । सूर्य का ताप जल सिंचन आदि से शान्त हो जाता है, जबकि कामाग्नि शान्त नहीं होती है। सूर्य का ताप चमड़ी को जलाता है जबकि कामाग्नि बाहर और अन्दर की धातुओं को भी जलाता है काम पिशाच के वश बना अपना हित अथवा अहित को जानता नहीं है जब काम से जलते मनुष्य हित करने वाले को भी शत्रु के समान देखता है । काम ग्रस्त मूढ़ पुरुष त्रिलोक के सारभूत भी श्रतरत्न का त्याग करता है और तीन जगत से पूजित भी उस श्रुत की महिमा को निश्चय रूप में नहीं मानता है, श्री जिनेश्वर कथित और स्वयं जानने योग्य तीन लोक के पूज्य तप, ज्ञान, चारित्र, दर्शन रूपी श्रेष्ठ गुणों को भी वह तृण समान मानता है। संसारजन्य भय दुःख का भी नहीं विचार करते निमार्गी कामी पुरुष, श्री अरिहन्त सिद्ध, आचार्य, वाचक और साधूवर्ग की अवज्ञा करता है। विषय रूपी आमिष में शुद्ध मनुष्य इस जन्म में होने वाले अपयश, अनर्थ और दुःख को तथा परलोक में दुर्गति और अनन्त संसार को भी नहीं गिनता है, वह नरक की भयंकर वेदनाएँ और घोर संसार समुद्र के आवेग के आधीन हो जाता है, परन्तु काम सुख की तुच्छता को नहीं देख सकता है, उच्च कुल में जन्म हुए भी विषय वश गाता है, नाचता है और दो पैर को धोता है। तथा भोग से अंगों को मलिन करता है और दूसरी ओर मलमूत्र की शुद्धि करता है। काम के सैकड़ों बाणों से भेदित कामी जैसे राजपत्नी में आसक्त वणिक पुत्र दुगंध वाले गुदे धोने के घर-विष्टा की गटर में अनेक बार रहा, उसी तरह दुर्गंध में रहता है। काम से उन्मत पुरुष वेश्यागामी के समान अथवा निजपुत्री में आसक्त कुबेरदत्त सेठ के समान भोग्य-अभोग्य को नहीं जानता है। काम के आधीन हुआ कडार पिंग नामक पुरुष ने इस जन्म में भी महान् दुःखों को प्राप्त किया और पाप से बद्ध हुआ वह मरकर नरक में गया। ये सर्व दोष ब्रह्मचारी वैरागी पुरुष को नहीं होता है । परन्तु इससे विपरीत विविध गुणों से होता है। स्त्री अपने वश हुए पुरुष के इस जन्म, परजन्म के सर्व गुणों को नाश करके दोनों जन्म में दुःख देने वाले दोष प्रगट करवाती है टेड़े मार्ग के समान स्वभाव से ही वक्र स्त्री हमेशा उसे अनुकूल होने पर भी पुरुष को सन्मार्ग से भ्रष्ट करके विविध प्रकार से संसार में परिभ्रमण करवाती है। मार्ग की धूल के समान, स्वभाव से ही मलिन स्त्री, निर्मल प्रकृति वाले पुरुष को भी समय मिलने पर सर्व प्रकार से मलिन करती है। वास के जंगल के समान स्वभाव से दुर्गम मायावाली, दुष्टा स्त्री सन्तान फल प्राप्त करने पर भी अपने वंश का
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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