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________________ ४६३ श्री संवेगरंगशाला नहीं सकता है और भोगने पर भी उसके मन की तृप्ति नहीं होती है, इस तरह लोभी जीव सारे जगत से भी तृप्त नहीं होता है। तथा जो जिसके धन की चोरी करता है, वह उसके जीवन का भी हरण करता है। क्योंकि धन के लिए वह प्राण का त्याग करता है, परन्तु धन को नहीं छोड़ता है। धन होने पर वह जीता रहता है और उससे स्त्री सहित स्वयं सुख को प्राप्त करता है, उसके उस धन का हरण करने से उसका सारा हरण किया है। इसलिए जीव दया रूपी परम धर्म को प्राप्त कर श्री जैनेश्वर और गणधरों के द्वारा निषेध किया हुआ लोक विरुद्ध और अधम अदत्त को नहीं ग्रहण करना चाहिए। दीर्घकाल चारित्र की आराधना करके भी केवल एक सली का भी अदत्त को ग्रहण करने वाला मनुष्य तृण समान हल्का और चोर के समान अविश्वसनीय बन जाता है । चोर वध बन्धन की पीड़ाएँ, यशकीर्ति का नाश, परभव का शोक और स्वयं सर्वस्व का नाश करने वाला मृत्यु को प्राप्त करता है । तथा हमेशा दिन और रात्री में शंका करते भयभीत होता, निद्रा को नहीं प्राप्त करता, वह हरिण के समान भय से कांपते सर्वत्र देखता है और भागता फिरता है। चहे द्वारा अल्प आवाज को सुनकर चोर सहसा सर्व अंगों से काँपता है और उद्विग्न बना हुआ गिरते चारों तरफ दृष्टि करता है। परलोक में भी चोर अपना स्थान नरक का बनाता है-उसमें जाता है और वहाँ अति चिरकाल तक तीव्र वेदनाओं को भोगता है । तथा चोर तिर्यंच गति में भी कठोर दुःखों को भोगता है। अधिक क्या कहें ? दुस्तर संसार सरोवर में बार-बार परिभ्रमण करता है । मनुष्य जन्म में भी उसका धन, माल आदि चोरी वाला अथवा चोरी बिना का भी नाश होता है, उसके धन की वृद्धि नहीं होती है और स्वयं धन से दूर रहता है। परधन हरण करने की बुद्धि वाला श्री भूति दुःख से भयंकर नरक में गिरा और वहाँ से अनन्त काल तक संसार अटवी में भ्रमण किया। ये सारे दोष परधन हरण के विरति वाले को नहीं होते और समग्र गुण उत्पन्न होते हैं । इसलिए ही हमेशा उपयोग वाले तू देवेन्द्र, राजा, गाथापति, गृहस्थ और सामिक, इस तरह पंचविध-अवग्रह में उचित विधिपूर्वक अवग्रह (वसति) को साधु जीवन के लिए आवश्यक होने से तू ग्रहण कर । ४. ब्रह्मचर्य व्रत :-पाँच प्रकार के स्त्री के वैराग्य में नित्यमेव अप्रमत्त रहने वाला, और नौ प्रकार के ब्रह्म गुप्ति से विशुद्ध तू ब्रह्मचर्य का रक्षण कर । जीव यह ब्रह्म है, इसलिए परदेह की चिन्ता से रहित साधु भी जो जीव में (ब्रह्म में) ही प्रवृत्ति होती है, उसे ब्रह्मचर्य जानना । वसति शुद्धि, सराग कथा त्याग, आसन त्याग, अंगोपांगादि इन्द्रियों को रागपूर्वक देखने का त्याग,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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