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________________ ४८८ श्री संवेग रंगशाला यह सुनकर श्रुत पढ़ने में उद्यमशील बना और वह मुनि विचार करने लगा कि - मनुष्य को किसी प्रकार का भी अध्ययन करना चाहिए । तूने यदि असम्बन्ध वाले भिन्न-भिन्न श्लोक द्वारा भी जीव का रक्षण किया है । इस कारण से ही पूर्व में मुझे गुरुदेव पढ़ने के लिए समझाया था परन्तु मैंने अज्ञानता के कारण उस समय थोड़ा भी अध्ययन नहीं किया । यदि मूढ़ लोगों का कहा हुआ भी पढ़ा हुआ ज्ञान इस प्रकार फलदायक बनता है तो श्री जिनेश्वर भगवन्त कथित ज्ञान को पढ़ने से वह महाफलदायक कैसे नहीं बने ? ऐसा समझकर वह गुरु के पास गया और दुर्विनय की क्षमा याचना कर प्रयत्नपूर्वक श्रुत ज्ञान पढ़ने लगा । इस प्रकार जव मुनि की प्राण और संयम की रक्षा हुई, तथा गर्दभ राजा ने पिता को नहीं मारने से कीर्ति और सद्गति को प्राप्त किया । इस तरह सामान्य श्रुत के भी प्रभाव को जानकर हे क्षपक मुनि ! तूं त्रिलोक के नाथ श्री जिनेश्वर परमात्मा के कथित श्रुत ज्ञान में सर्व प्रकार से आदरमान कर ! इस प्रकार सम्यग् ज्ञानोंप्रयोग नाम का नौवाँ अन्तर द्वार कहा । अब पन्च महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार कहते हैं । दसवाँ पन्च महाव्रत रक्षण द्वार : - सम्यग् ज्ञान उपयोग का श्रेष्ठ फल व्रत रक्षा है और निर्वाण नगर की ओर ले जाने के लिए मार्ग में रथ तुल्य है उन व्रतों में प्रथम व्रत वध त्याग रूप अहिंसा, दूसरा व्रत मृषा विरमण, तीसरा व्रत अस्तैन्य, चौथा व्रत मैथुन से निवृत्ति रूप ब्रह्मचर्य पालन और पाँचवाँ व्रत अपरिग्रह है । इसे अनुक्रम से कहते हैं : १. अहिंसा व्रत :- जीव के भेदों को जानकर जावज्जीव मन, वचन, काया रूप योग से छह काय जीव के वध का सम्यग् रूप त्याग कर । उस जीव के भेद इस प्रकार हैं। पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु इन चार के दो-दो भेद हैं, सूक्ष्म और बादर और वनस्पति साधारण तथा प्रत्येक इस तरह दो प्रकार की होती है । उसमें साधारण सूक्ष्म और बादर दो प्रकार के जानना । इस तरह ग्यारह भेद हुए, उसके पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से सब मिलकर स्थावर के बाईस भेद होते हैं दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले विकलेन्द्रिय और पन्चेन्द्रिय संज्ञी और असंज्ञी दो प्रकार इस तरह कुल पाँच भेद के पर्याप्त, अपर्याप्त के भेद से तस जीव दस प्रकार के जानना । इत्यादि भेद वाले सर्व जीव में तत्त्व को जान, सर्वादर से उपयुक्त तू सदा अपने आत्मा के समान मानकर दया कर । वह इस प्रकार से निश्चय ही सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, मरने की इच्छा नहीं करता है, इसलिए धीर पुरुष भयंकर हिंसा का हमेशा त्याग करते हैं। भूख प्यास आदि से अति पीड़ित भी तू स्वप्न में भी कभी भी जीवों का घात
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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