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________________ श्री संवेगरंगशाला ४८७ से बचाया, तो श्री जैन कथित सूत्र जीव का संसार समुद्र से रक्षक क्यों नहीं हो सकता है ? अर्थात् इससे अवश्यमेव संसार समुद्र से पार हो सकता है, उसकी कथा इस प्रकार है : यव साधु का प्रबन्ध उज्जैन नगर में अनिल महाराजा का पुत्र जव नाम का पुत्र था, उसका गर्दभ नामक पुत्र परम स्नेह पात्र था वह युवराज था और सम्पूर्ण राज्य भार का चिन्तन करने वाला एवं सर्व कार्यों में विश्वासपात्र दीर्घपृष्ट नाम का मंत्री था। और अत्यन्त रूप से शोभित नवयौवन से खिले हुये सुन्दर अंग वाली अडोल्लिका नाम की जवराज की पुत्री थी, जो गर्दभ युवराज की बहन थी। एक समय उसे देखकर युवराज काम से पीड़ित हुआ और उसकी प्राप्ति नहीं होने से प्रतिदिन दुर्बल होने लगा। एक दिन मन्त्री ने पूछा कि तुम दुर्बल क्यों होते जा रहे हो ? अत्यन्त आग्रह पूर्वक पूछने पर उसने एकान्त में कारण बतलाया। तब मन्त्री ने कहा कि-हे कुमार ! कोई नहीं जान सके, इस प्रकार तू उसे भौरें में छुपाकर विषय सुख का भोग कर ! संताप क्या नहीं करता है ? ऐसा करने से लोग भी जानेंगे कि--निश्चय ही किसी ने इसका हरण किया है। मूढ़ कुमार ने वह स्वीकार किया और उसी तरह उसने किया। यह बात जानकर जवराज को गाढ़ निर्वेद (वैराग्य) उत्पन्न हुआ और पुत्र को राज्य पर स्थापन कर सद्गुरू के पास दीक्षा अंगीकार की। परन्तु बार-बार कहने पर भी वह जव राजर्षि पढ़ने में विशेष उद्यम नहीं करते थे और पुत्र के राग से बार-बार उज्जैनी में आते थे। एक समय उज्जैन की ओर आते उसने जौं के क्षेत्र की रक्षा में उद्यमी क्षेत्र के मालिक ने अति गुप्त रूप में इधर-उधर छुपते गधे को बड़े आवाज से स्पष्ट अर्थ वाला रटे हुए श्लोक को बोलते हुये इस प्रकार सुना : "आधावसि पधापसि, ममं चेव निरिक्खिसि। लक्खि तो ते मए भावो, जवं पत्थेसि गध्हा ॥" अर्थात्-सामने आता है, पीछे भागता है और मुझे जो देखता है, इसलिए हे गधे ! मैं तेरे भाव को जानता हूँ कि-तू जौं (जव) को चाहता है। फिर कुतूहल से उस श्लोक को याद करके वह साधु आगे चलने लगा, वहाँ एक स्थान पर खेलते लड़कों ने गिल्ली फैकी, वह एक खड्डे में कहीं गिर पड़ी, और प्रयत्नपूर्वक लड़के ने सर्वत्र खोज करने पर भी गिल्ली जब नहीं मिली तब वह खड्डे को देखकर एक लड़के को इस प्रकार कहा :
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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