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________________ ४७० श्री संवेगरंगशाला भी परमेश्वर्य वाले श्री सिद्ध, परमात्मा, चैत्य, आचार्य, उपाध्याय, साधु की भक्ति संसार के कंद का निकंदन करने में समर्थ कैसे न हो ? सामान्य विद्या भी उनकी भक्ति से ही सिद्ध होती है और सफल बनती है तो निर्वाण - मोक्ष की विद्या क्या उनकी भक्ति करने से सिद्ध नहीं होगी। आराधना करने योग्य उनकी भक्ति जो मनुष्य नहीं करता वह उखर भूमि में बोये अनाज के समान संयम को निष्फल करता है । आराधक की भक्ति बिना जो आराधना की इच्छा करता है वह बीज बिना अनाज की और बादल बिना वर्षा की इच्छा करता है । विधिपूर्वक बोया हुआ भी अनाज जैसे वर्षा उगाने वाला होता है, वैसे तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुणों को आराधक परमात्मा की भक्ति से सफल करता है । श्री अरिहंतादि की एक- एक की भी भक्ति करने से सुख की परम्परा को अवश्य प्रगट करता है । इस विषय पर कनकरथ राजा का दृष्टान्त रूप है वह इस प्रकार है : श्री अरिहंत की भक्ति पर कनकरथ राजा की कथा जिस नगर में उत्तम पति के द्वारा रक्षण की हुई सुन्दर लम्बी नेत्रों वाली और उत्तम पुत्र वाली स्त्रियाँ जैसे शोभती थीं वैसे राजा से सुरक्षित उत्तम गली बाजार युक्त मिथिला नगरी थी । उसमें कनकरथ नाम का राज। राज्य करता था । सूर्य के समान जिसके प्रताप के विस्तार से शत्रु के समूह का पराभव होता था, सूर्य के तेज से रात्री विकासी कमल का खण्ड जैसे शोभा - रहित और संकुचित - दुर्बल बन जाए वैसे शोभा रहित और दीन वे शत्रु बन गये थे । याचक अथवा स्नेही वर्ग को संतोष देने वाले और परम्परा के वैर का त्याग करने वाला नीति प्रधान राज्य के सुख को भोगते और रत्नों से प्रकाशमान सिंहासन पर बैठा था । उस समय पर एक संधिपालक ने पूर्ण रूप में मस्तक नमाकर विनती की कि हे देव ! यह आश्चर्य है कि सूर्य अंधकार जीतता है और सिंह के बच्चे की भी केसरा मृग नाश करता है, वैसे चिरकाल से भेजा हुआ आपका महान चतुरंग सेना को उत्तर दिशा का स्वामी महेन्द्र राजा भगा रहा है । उनकी प्रवृत्ति जानने के लिए नियुक्त किये गुप्तचरों ने आकर अभी ही मुझे युद्ध का वृतान्त यथा स्थित कहा है । और वही जो कलिंग देश राजा आपका प्रसाद पात्र था वह निर्लज्ज शत्रु के साथ मिल गया है, दाक्षिण्य रहित कुरू देश का राजा भी आप के सेनापति के प्रति द्वेष दोष से उसी समय वापन युद्ध में से आ गया है । दूसरे भी काल कुंजर, श्री शेखर, शंकर आदि सामंत राजा सेना को बिखरते देखकर युद्ध से पीछे हट गये हैं और
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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