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________________ श्री संवेगरंगशाला 1 छठा सम्यक्त्व द्वार : - अनन्ता भूतकाल में जो पूर्व में कदापि प्राप्त नहीं हुआ, जिसके प्रभाव से संसार महासमुद्र को छोटे से सरोवर के समान बिना प्रयास से तर सकता है जिसके प्रभाव से मुक्ति की सुख रूप सम्पत्ति हस्त कमल में आती है, जो महान कल्याण का निधान का प्रवेश द्वार है, और मिथ्यात्व रूपी प्रबल अग्नि से तपे हुए जीवों को जो अमृत के समान शान्त करने वाला है उस सम्यक्त्व को, हे क्षपक मुनि ! तूने प्राप्त किया है । यह सम्यक्त्व प्राप्त करने से अब तू भयंकर संसार के भय से डरना नहीं, क्योंकि इसकी प्राप्ति से संसार को जलांजलि दी है । और यह जीव नरक में अति दीर्घकाल भी सम्यक्त्व सहित रहना वह भी श्रेष्ठ है, परन्तु इससे रहित जीव देवलोक में उत्पन्न होना वह भी अच्छा नहीं है । क्योंकि वह शुद्ध सम्यक्त्व के प्रभाव से नरक में से यहाँ आकर जीव कई तीर्थंकर आदि लब्धि वाले हुए हैं, ऐसा आगम में सुना है । और सम्यक्त्व गुण से रहित देवलोक से भी च्यवन कर इस संसार में पृथ्वी कायादि में भी उत्पन्न होना और वहाँ दीर्घकाल रहने का आगम में सुना जाता है । केवल अन्त मुहूर्त भी यदि यह सम्यक्त्व किसी तरह स्पर्शित होता है तो अनादि भी संसार समुद्र निश्चय गोष्पद जितना अल्प बन जाता है, ऐसा मैं मानता हूँ । निश्चय जिसको सम्यक्त्व रूपी महाधन है वह पुरुष निर्धनी भी धनवान है । यदि धनवान केवल इस जन्म में सुखी है तो सम्यग् दृष्टि प्रत्येक जन्म में भी सुखी है । अतिचार रूपी रज से रहित निर्मल सम्यक्त्व रत्न जिसके मन मन्दिर में प्रकाशित है वह जीव मिथ्यात्व रूपी अन्धकार से पीड़ित कैसे हो सकता है ? जिसके मन में सर्व अतिशयों का निमित्त सम्यक्त्व रूप मन्त्र है, उस पुरुष को ठगने के लिए मोह पिशाच भी समर्थ नहीं है। जिसके मन रूपी आकाश तल में सम्यक्त्व रूपी सूर्य प्रकाश करता है, उसके मन में मित्यात्व रूपी ज्योति चक्र प्रगट भी नहीं होता है । पाखण्डी रूपी दृष्टि विष सर्प आकर डंख लगाता है, परन्तु जो सम्यक्त्व रूपी दिव्य मणि को धारण करता है उसे कुवासना रूप विष संक्रमण ( चढ़ता ) नहीं है । ४६८ इसलिए सर्व दुःखों का क्षय करने वाला सम्यक्त्व में प्रमाद को नहीं करना चाहिए, क्योंकि - वीर्य, तप, ज्ञान और चारित्र भी इस सम्यक्त्व में रहा है । जैसे नगर का द्वार, मुख की आँखें और वृक्ष का मूल है वैसे वीर्य, तप, ज्ञान और चारित्र का यह सम्यक्त्व द्वार आँखें और मूल जानना । ज्ञानादि आत्मस्वभाव, प्रीति का विषयभूत माता, पितादि, स्वजन और श्री अरिहंतादि के अनुराग में रक्त अर्थात् शास्त्रोक्त भावाभ्यास, सतताभ्यास और विषयाभ्यास
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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