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________________ श्री संवेगरंगशाला ४५५ उसके कहने अनुसार अगङदत्त भी वहाँ भौंरे तक पहँचा और वहाँ पाताल कन्या के समान मनोहर शरीर वाली एक युवती को देखा। उसने पूछा कि-तू कहाँ से आया है ? तब अगङदत्त ने तलवार को बाहर निकालकर उसे बतलाया। इससे सउने अपने भाई का मरण जानकर और उसका शोक छुपाकर आदरपूर्वक नेत्रों वाली उसने कहा-हे सुभग ! तेरा स्वागत करती हूँ। फिर उसे आसन दिया और अगङदत्त शंकापूर्वक बैठा। उसके बाद उसने पूर्व में बनाई हुई बड़ी शिला रूप यन्त्र से युक्त दिव्य सिरहाना से शोभित पलंग सर्व आदरपूर्वक तैयार की और अगङदत्त से कहा कि-महाभाग ! इसमें क्षण वार आराम करो। वह उसमें बैठा, परन्तु उसने ऐसा विचार किया कि-निश्चय यहाँ रहना अच्छा नहीं है। शायद ! यह कपट न हो, इससे यहाँ जागृत रहुँ। फिर क्षण खड़ी रहकर यन्त्र से शिला को नीचे गिराने के लिए वह वहाँ से निकल गई और अगङदत्त भी पलंग छोड़कर अन्य स्थान पर छुप गया। उसने कील खींचकर सहसा उस शिला को गिराया और वह शिला गिरते ही पलंग सम्पूर्ण रूप में टूट गया। फिर परम हर्ष के अतीव प्रसन्न हृदय वाली उसने कहा कि-हा ! मेरे भाई का विनाश करने वाले पापी को ठीक मार दिया। तब हा ! हा ! दासी पुत्री ! मुझे मारने वाला कौन है ? ऐसा बोलते अगङदत्त ने दौड़कर उसे चोटी से पकड़ा । तब उसने पैरों में गिरकर कहा कि रक्षा करो! रक्षा करो ! अतः उसे छोड़कर राजा के चरणों में ले गया। उसके बाद उसने सारा वृत्तान्त कहा। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उसे बड़ी आजीविका देना निश्चय कर दिया और लोगों ने उसे बहुत पूज्य रूप स्वीकार किया, फिर उसकी कीर्ति सर्वत्र फैल गई। वह कालक्रम से अपने नगर में गया, वहाँ के राजा ने सत्कार कर उसके पिता के स्थान पर स्थापित किया। ___ इस तरह जागृत और नींद वाले के गुण दोष का सम्यक् रूप जानकर इस भव और परभव के सुख की इच्छा करने वाला कौन निद्रा का सत्कार करे ? और राजसेवा आदि अनेक प्रकार के इस जन्म के कार्य और स्वाध्याय, ध्यान आदि परजन्म के कार्यों का भी निद्रा घात करता है । शत्रु सोये हुए का मौका देखता है, उसमें सर्प दुःख लगता है, अग्नि का भोग बनता है और मित्र आदि 'बहुत सोने वाला' ऐसा कहकर हांसी करते हैं । अथवा दोष को करने वाले के ऊपर चन्दुषा आदि में रहे छिपकली आदि जीवों का मूत्रादि सोये हुए के मुंह में गिरता है या गाढ़ नींद में सोये प्रमादी को क्षुद्र देवता भी अपद्रव करता है। पूरुष की वह चतुराई उस बुद्धि का प्रकर्ष और निश्चय वह उत्तम विज्ञान आदि निद्रा से एक साथ में ही खत्म हो जाता है। और निद्रा अन्धकार के
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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