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________________ ४५२ श्री संवेगरंगशाला हुई कषाय रूपी अग्नि जलती हो तो भले जले। परन्तु जो श्री जैन वचन रूपी जल से सिंचन किया हो मनुष्य भी जले वह अयोग्य है । क्योंकि उत्कर कषाय रोग के प्रकोप से उदय हुआ गाढ़ पीड़ा वाले को भी श्री जिन वचन रूपी रसायण से प्रशम रूप आरोग्य प्रगट होता है। फैला हुआ अहंकारी और अति भयंकर कषाय रूपी सों से घिरा हुआ शरीर वाला अल्प सत्त्व वाला जीवों का रक्षण भी श्री जिन वचन रूपी महामन्त्र से होता है। इसलिए जो दुर्जय महाशत्रु एक कषाय को ही जीत लेता है तो तूने सर्व जीतने योग्य शत्रु समूह को जीत लिया है । अतः कषाय रूपी चोरों का नाश करके मोह रूपी महान वाघ को भगाकर ज्ञानादि मोक्ष मार्ग में चले हुए तू भयंकर भयाटवी का उल्लंघन कर । इस तरह कषाय द्वार को कहा है। अब क्रमानुसार दोष से मुक्त निद्रा द्वार को यथा स्थित कहता हूँ। चौथा निद्रा प्रमाद का स्वरूप :-अदृश्य रूप वाला जगत में यह कोई निद्रारूपी राहु है, कि जो जीव रूपी चन्द्र और सूर्य नहीं दिखता इस तरह ग्रहण करता है। इस निद्रा का क्षय हो जाये । इससे जीता हुआ भी मनुष्य मरे हुए के समान और मद से मत समान, मूछित के समान, शीघ्र सत्त्वरहित बन जाता है। जैसे स्वभाव से ही कुशल, सकल इन्द्रियों के समूह वाला भी मनुष्य निश्चय जहर का पान करके इन्द्रियों की शक्ति से रहित बनता है, वैसे निद्रा के आधीन बना भी वैसा ही बनता है। और अच्छी तरह आँखें बन्द की हों, नाक से बार-बार घोर घुर-घुर आवाज करता हो, फटे होठ में दिखते खुले दाँत से विकराल मुख के पोलापन वाला हो, खिसक गये वस्त्र वाला हो, अग उपांग इधर-उधर घुमाता हो, लावण्य रहित और संज्ञा रहित सोये या मरे हुये के समान मानो या देखो तथा निद्राधीन पुरुष नींद में इधर-उधर शरीर चेष्टा करते सूक्ष्म और बादर अनेक जीवों का नाश करता है। निद्रा उद्यम में विघ्नरूप है, जहर का भयंकर बेचनी समान है, असभ्य प्रवृत्ति है और निद्रा महान् भय का प्रादुर्भाव है। निद्रा ज्ञान का अभाव है। सभी गुण समूह का परदा है और विवेक रूपी चन्द्र को ढांकने वाला गाढ़ महान बादल समूह समान है। निद्रा इस लोक परलोक के उद्यम को रोकने वाली है और निश्चित सर्व उपायों का परम कारण है। इस कारण से ही निद्रा त्याग द्वारा अगङदत्त जीता रहा और अन्य मनुष्य निद्रा प्रमाद से मर गये । उसका प्रबन्ध इस प्रकार है :
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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