SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 467
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४४ श्री संवेगरंगशाला सहित राजा ने सभ्यग् स्वीकार किया, केवल निर्मल बुद्धि वाले अभय कुमार ने कहा कि हे तात ! इस तरह मोहवश क्यों होते हो? इस जगत में निश्चय ही माँस सर्व से मंहगा है उस तरह धातु और वस्त्र आदि मंहगा नहीं है और सुलभ है। मंत्रियों ने कहा कि थोड़ा मूल्य देने पर भी बहुत माँस मिलता है, तो इस तरह मांस को अति मंहगा कैसे कह सकते हैं ? उसे प्रत्यक्ष ही देखो ! दूसरी वस्तु बहुत धन देने के बाद मिलती है। जब सबने ऐसा कहा तब अभय मौन करके रहा । फिर उसी वचन को सिद्ध करने के लिए उसने श्रेणिक राजा को कहा कि-हे तात ! केवल पाँच दिन के लिए राज्य मुझे दो! राजा ने सभी लोगों को बुलाकर कहा कि मेरा सिर दर्द करता है अतः अभय को राज्य पर स्थापना करता हूँ। इस तरह स्थापन कर राजा स्वयं अन्तपुर में रहा । अभय कुमार ने भी समस्त लोगों को दान मुक्त किया और अपने राज्य में अहिंसा पालन की उद्घोषणा करवाई । जब पाँचवाँ दिन आया तब रात में वेश परिवर्तन करके शोक से पीड़ित हो, इस तरह उन सामंत और मंत्रियों के घर में गया। सामंत आदि ने कहा किनाथ ! इस तरह पधारने का क्या कारण है ? अभय ने कहा कि-श्रेणिक राजा मस्तक की वेदना से अति पीड़ित है और वैद्यों ने उत्तम पुरुषों के कलेजे के माँस की औषधी को बतलाया है; इसलिए आप शीघ्र अपने कलेजे का तीन जो जितना माँस दो। उन्होंने भी सोचा कि यह अभय कुमार प्रकृति से क्षुद्र है इसलिए लांच देकर छुट जाए। ऐसा विचार कर अपने रक्षा के लिए रात को अठारह करोड़ सौना मोहर दी। प्रभात काल होते और पाँच दिन पूर्ण होते अभय कुमार ने अपने पिता को राज्य वापिस स्थापन किया और वह अठारह करोड़ सोना मोहर का ढेर राज्य सभा में किया। इसे देखकर व्याकुल मन वाले श्रेणिक ने विचार किया कि-निश्चय ही अभय कुमार ने लोगों को लूटकर निर्धन कर दिया है, अन्यथा इतनी बड़ी धन की प्राप्ति कहाँ से होती ? फिर नगर वासी लोगों के आशय को जानने के लिए श्रेणिक राजा ने त्रिकोण मार्ग, चार रास्ते, आदि बड़े-बड़े स्थानों पर तलाश करने गुप्तचरों को आदेश दिया। वहाँ "प्रगट तेज वाले, प्रगट प्रभावी मनोहर अमृत की मूर्ति समान अभय कुमार याषच्यन्द्र दिवाकर चिरकाल तक राज्य लक्ष्मी को भोगो।" इस प्रकार नगर में सारे घरों में मनुष्यों के मुख से अभय कुमार का यश वाद सुनकर गुप्तचरों ने राजा को यथा स्थित सारा वृतान्त सुनाया। तब विस्मित मन वाले राजा ने अभय कुमार से पूछा कि-हे पुत्र ! इतनी महान् धन सम्पत्ति कहाँ से प्राप्त की है ?
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy