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________________ श्री संवेगरंगशाला ४३१ खीन आदि हैं, तथा स्त्री, पुत्रादि परिवार अनुरागी हैं। इस तरह मेरा ऐश्वर्य सर्वत्र प्रशस्त पदार्थों के विस्तार से स्थिर है, इससे मानता हूँ कि मैं ही इस लोक में साक्षात् वह कुबेर यक्ष हूँ। इस तरह ऐश्वर्य के आश्रित भी मद सर्वथा नहीं करना चाहिये। क्योंकि संसार में मिले हुए सभी पदार्थ नाशवान हैं। राजा, अग्नि, चोर, हिस्सेदार और अति कुपित देव आदि से धन का क्षय करने वाले कारण सदा पास होते हैं। इस लिए उसका मद करना योग्य नहीं है। तथा दक्षिण मथुरा और उत्तर मथुरा के व्यापारियों की शास्त्र प्रसिद्ध कथा को सुनकर धन्य पुरुष ऐश्वर्य में अल्पमात्र भी मद नहीं करते हैं। वह कथा इस प्रकार है :दक्षिण मथुरा और उत्तर मथुरा के व्यापारियों की कथा जगत प्रभु श्री सुपार्श्वनाथ के मणि के स्तुभ से शोभित अति प्रशस्त तीर्थभूत और देवनगरी के समान मनोहर मथुरा नाम की नगरी थी। वहाँ कुबेर तुल्य धन का विशाल समूह वाला लोगों में प्रसिद्ध परम विलासी धनसार नाम का बड़ा धनिक सेठ रहता था। एक समय तथाविध कार्यवश अनेक पुरुषों से युक्त वह दक्षिण मथुरा में गया और वहाँ उसका सत्कार सन्मान आदि करने से उसके समान वैभव से शोभित धन मित्र नामक व्यापारी के साथ स्नेह युक्त शुद्ध मैत्री हो गई। एक दिन सुख से बैठे और प्रसन्न चित्त वाले उनमें परस्पर इस प्रकार का बार्तालाप हुआ कि-पृथ्वी के ऊपर घूमते, किसको, किसकी बात नहीं करते ? अथवा स्नेह युक्त मैत्री भाव को कौन नहीं स्वीकार करता ? परन्तु सम्बन्ध बिना बहुत दिन जाने के बाद रेती की बाँधी पाल के समान टूट जाती है। वह सम्बन्ध दो प्रकार का होता है। एक मूल भूत और दूसरा उत्तर भूत । उसमें पिता, माता, भाई का सम्बन्ध मूल भूत होता है, वह हमें आज नहीं है, पुनः उत्तर सम्बन्ध विवाह करने से होता है, वह यदि हमारे यहाँ पुत्री अथवा पुत्र जन्म हुआ हो तो करने योग्य है। ऐसा करने से वज से जुड़ी हुई हो ऐसी मैत्री जावज्जीव तक अखण्ड रहती है। यह कथन योग्य होने से कुविकल्पी को छोड़कर दोनों ने उसे स्वीकार किया। फिर धन मित्र को पुत्र का जन्म हुआ और धनसार सेठ की पुत्री ने जन्म लिया। उन्होंने पूर्व में स्वीकार करने के अनुसार कबूल कर बालक होने पर भी उनकी परस्पर सगाई की। बाद में धनसार अपना कार्य पूर्णकर अपने नगर को गया, और धन मित्र अपने इष्ट कार्यों में प्रवृत्ति करने लगा। किसी समय जीवन का शरद ऋतु के बादल समान चंचल होने से वह
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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