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________________ ४२८ श्री संवेगरंगशाला मुनि ! महान् उग्र तप को करते हुये भी मोक्ष के अभिलाषा वाला तुझे अल्प भी तपमद को नहीं करना चाहिए। यह छठा मद स्थान अल्पमात्र दृष्टान्त के साथ कहा है । अब सातवां लाभ सम्बन्धी मद स्थान कहता हूँ। ७. लाभमद द्वार :- मनुष्यों को लाभान्तराय नामक कर्म के क्षयोपशम से लाभ होने का उदय होता है और पुनः उससे अलाभ होता है, इसलिए विवेकी जन को लाभ होने पर 'मैं भी लब्धिवंत हूँ' ऐसा अपना उत्कर्ष और लाभ नहीं होने पर विषाद नहीं करना चाहिए। जो इस जन्म में लाभ प्राप्त करने वाला होता है वही कर्मवश अन्य जन्म में भिक्षा की प्राप्ति भी नहीं होती है। इस विषय पर बढ़ण कुमार मुनि का दृष्टान्त भूत है। वह इस प्रकार : श्री ढढ़ण कुमार मुनि का दृष्टान्त मगध देश में धन्यपुर नामक श्रेष्ठ गाँव था, वहाँ कृशी पारासर नाम से धनाढ्य ब्राह्मण रहता था। पूर्वोपार्जित पुण्य के आधीन वह धन के लिए खेती आदि जो कोई भी उपाय करता था उसे उसको लाभ के लिए होता था। और श्रेष्ठ अलंकार, दिव्य वस्त्र तथा पुष्षों से मनोहर शरीर वाला वह 'लक्ष्मी का यह फल है' ऐसा मानता स्वजनों के साथ विलास करता था। मगध राजा के आदेश से गाँव के पुरुषों द्वारा पाँच सौ हल से वह हमेशा बोता था। फिर राजा के खेत से निवृत्त हुए किसान भोजन के समय होते भूख से पीड़ित और बैल थक जाते थे फिर भी बलात्कार निर्दय युक्त उसी समय अपने खेत में उनके द्वारा एक-एक खेत में कार्य करवाता था। और उस निमित्त से उसने गाढ़ अन्तराय कर्म बन्धन किया। फिर वह मरकर नरक भूमि में नरक का जीव बना। वहाँ से निकल कर विविध भेद वाली तिर्यंच योनियों में उत्पन्न हुआ और किसी तरह पुण्य उपार्जन होने से देव और मनुष्य में भी जन्म लिया। फिर समुद्र के संग से अथवा पवित्र लावण्य को प्राप्त करने वाली मनोहर शरीर वाली, स्त्रियों से शोभित, विशिष्ट सौराष्ट्र देश में धन धान्य से समृद्धशाली, प्रत्यक्ष देव लोक के समान और स्वभाव से गुण रागी, सम्यग् दान देने से शूरवीर मिष्ठ लोगों वाली द्वारिका नगरी में उस केशी अश्व मुख दैत्य और कंस के अहंकार को चकनाचूर करने वाला भरत के तीन खण्ड के राजाओं के मस्तक मणि की कान्ति से शोभित चरण वाले, यादवों के कुलरूपी आकाश में सूर्य समान श्रीकृष्ण वासुदेव का ढढ़ण कुमार नाम से पुत्र रूप जन्म लिया । सर्व कलाओं का अभ्यास कर क्रमशः यौवन वय प्राप्त किया। और अनेक युवती स्त्रियों के साथ विवाह कर दोगुंदक देव के समान विलास करने लगा।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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