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________________ श्री संवेगरंगशाला ४१५ में प्रथम मैं, विदेह की मूका नगरी में चक्रवर्ती भी मैं और तीर्थकरों में अन्तिम मैं हूँ तो अहो ! मेरा पूर्ण है" वासुदेवों में प्रथम, मेरे पिता चक्रवर्ती के वंश में प्रथम, और आर्य - दादा तीर्थंकरों में प्रथम हैं, अहो ! मेरा कुल उत्तम है । इस तरह अपने कुल की सुन्दरता की सम्यक् प्रशंसा रूप कलुषित भाववश उसने नीच गोल कर्म का बन्धन किया, और उस निमित्त से वापिस वह महात्मा छहभवों तक ब्राह्मण कुल में और दूसरे नीच कुल में उत्पन्न हुए तथा वासुदेव, चक्रवती की लक्ष्मी को भोगकर अरिहंत आदि बीस स्थानकों की आराधना करके, अन्तिम जन्म में अरिहंत होने पर भी अनेक पूर्वकाल में बन्धन किये नीच गोत्र कर्म के दोष से वह ब्राह्मण कुल में देवनंदा ब्राह्मण के गर्भ रूप में उत्पन्न हुए, केवल बयासी दिन बाद इन्द्र महाराज ने जानकर 'यह अनुचित है' ऐसा विचार कर हरिणैगमेषी देव को आदेश देकर उसे सिद्धार्थ राजा की पत्नी त्रिशला के गर्भ में रखा । फिर उचित समय में उनका जन्म हुआ, तब देवों ने मेरु पर्वत ऊपर जन्माभिषेक किया, और तीर्थ (धर्म) की स्थापन करके उन्होंने परमपद प्राप्त किया । इस तरह अपने कुल की प्रशंसा से बन्धन किये नीच कर्म के दोष से यदि श्री तीर्थंकर परमात्मा भी ऐसी अवस्था को प्राप्त करते हैं, तो संसार के जानकार पुरुषों को कुलमद की इच्छा भी कैसे करे ? इसलिए हे क्षपक मुनि ! तुझे अब से इस मद को किसी प्रकार से भी नहीं करना चाहिये । इस तरह दूसरा कुलमद का अन्तर द्वार कहा है अब तीसरा रूप मद को भी मैं अल्पमात्र द्वार कहता हूँ । ३. रूपमद द्वार : – प्रथम से ही शुक्र और रूधिर के संयोग से जिस रूप की उत्पत्ति है, उस रूप को प्राप्त करके मद करना योग्य नहीं है । जिसका नाश का कारण रोग है पुदगल का गलना, सड़ना, जरा और मरण यह साथ ही रहता है । ऐसे नाशवंत रूप में मद करना वह ज्ञानियों को मान्य नहीं है । विचार करते वस्त्र आभूषणादि के संयोग से कुछ शोभा दिखती है, हमेशा बार-बार मरम्मत करने योग्य, नित्य बढ़ने घटने के स्वभाव वाला, अन्दर दुर्गन्ध से भरा हुआ, बाहर केवल चमड़ी से लिपटा हुआ और अस्थिर समान रूप में मद करने का कोई भी अवकाश नहीं है । कर्मवश विरूप वाला भी रूपवान और रूप वाला भी रूप रहित होता है । इस विषय में काकंदी निवासी दो भाईयों का दृष्टान्त कहते हैं । वह इस प्रकार है : काकंदी के दो भाईयों की कथा अनेक देशों में प्रसिद्ध और विविध आश्चर्यों का स्थान भूत काकंदी नगरी में यश नामक धनपति रहता था । उसकी कनकवती नाम की स्त्री था ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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