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________________ ४१० श्री संवेगरंगशाला सरल स्वभाव से मुनि ने मृषावाद, परद्रव्य, मैथुन और परिग्रह के त्याग युक्त पिंड विशुद्धि आदि श्रेष्ठ गुणों के समूह से सुन्दर जगत गुरू श्री जैनेश्वर भगवान ने उसका मूल जीव दया कहा है, इससे शिवगति की प्राप्ति होती है, अतः वहाँ तक धर्म की अच्छी तरह आराधना करने को कहा है। यह सुनकर वह हँसीपूर्वक ऐसा बोलने लगा कि-हे साधु ! किस ठग ने तुझे इस तरह ठग लिया है, कि जिससे प्रत्यक्ष दिखता हुआ भी दिव्य विषय सुख को छोड़कर अपने को और पर को क्लेश की चिन्ता में डालता है ? जीव दया करने से धर्म और उसका फल मोक्ष है, परन्तु किसने देखकर कहा है कि जिससे इस तरह कष्ट सहन करते हैं ? अतः मेरे साथ चलो, इस वन की शोभा देखो, पाखण्ड को छोड़कर, महल में रहकर स्वेच्छानुसार स्त्रियों के साथ विलास को करो। इस तरह अयोग्य वचनों द्वारा अपने साथ रहे परिवार को हँसाते उसने मुनि को हाथ से पकड़कर वहाँ से घर की ओर ले जाने लगे। उस समय मुनि के हास्य से क्रोधित हई वन देवी ने उसे काष्ठ के समान बेहोश करके पृथ्वी के ऊपर गिरा दिया । मुनि ने अल्प भी प्रद्वेष किये बिना स्वकर्त्तव्य में स्थिर रहे, और सुलस की ऐसी अवस्था देखकर मित्र वर्ग उसे घर ले गये, और यह सारा वृत्तान्त उसके पिता को कहा । दुःख से पीड़ित पिता ने उसकी शान्ति के लिए देव पूजा आदि विविध उपाय किये। फिर भी उसको अल्प भी शान्ति नहीं हुई । इससे उसे लाकर मुनि के पास रखा, वहाँ कुछ स्वस्थ हुआ। तब उसके पिता ने मुनि श्री को कहा कि-हे भगवन्त ! आपका अपमान करने का यह फल प्राप्त किया है, अतः आप कृपा करो और मेरे पुत्र का दोष दूर कर दो। इत्यादि नाना प्रकार से पुरोहित ने कहा, तब देवी ने कहा कि--अरे, म्लेच्छ तुल्य ! तू स्वच्छन्दता पूर्वक बहुत क्या बोलता है ? यदि यह तेरा दुष्ट पुत्र सदा मुनि के दास के समान प्रवृत्ति करेगा तो स्वस्थता को प्राप्त करेगा, अन्यथा जीता नहीं रहेगा। अतः 'किसी तरह भी यदि जीता रहेगा तो मैं देख सकूँगा।' इस तरह चिन्तन कर उसके पिता ने उसे मुनि को सौंपा। उस मुनि ने भी इस तरह कहा कि-'साधू असंयमी गृहस्थ को स्वीकार नहीं करते हैं।' इसलिए यदि दीक्षा को स्वीकार करे तो यह मेरे पास रहे । मुनि के ऐसा कहने पर पुरोहित ने पुत्र से कहा कि-हे वत्स ! यद्यपि तेरे सामने इस तरह कहना योग्य नहीं है, फिर भी तेरे जीवन में दूसरा उपाय कोई नहीं है, इसलिए इस साधु के पास दीक्षा को स्वीकार कर। हे पुत्र ! धर्म के आचरण करते तेरा अहित नहीं होगा, क्योंकि मन वांछित की प्राप्ति कराने में समर्थ धर्म ही सर्व श्रेष्ठ है। फिर मृत्यु होने के अति कठोर संताप से दीन मुख वचन वाला सुलभ ने
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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