SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला ४०३ करना नहीं कहते। इस प्रकार होने पर भी जो मुग्ध लोगों को माया मृषा द्वारा ठगकर लूटता है, वह तीन गाँव के बीच में रहने वाला कूट तपस्वी के समान पछताना होता है। उसकी कथा इस प्रकार है : कुट तपस्वी की कथा उज्जयनी नामक नगरी में अत्यन्त कूट कपट का व्यसनी अघोर शिव नाम का महा तुच्छ ब्राह्मण रहता था। इन्द्रजाल के समान माया से लोगों को ठगने की प्रवृत्ति करता था। इससे लोगों ने नगर में से निकाल दिया था। वह अन्य देश में चला गया, वहाँ पर हल्के चोर लोगों के साथ मिल गया और अति विरोधी आशय वाले उसने उनको कहा कि-यदि तुम मेरी सेवा करो, तो मैं साधु होकर निश्चय से लोगों के धन का सही स्थान को जानकर तुम्हें कहूँगा, फिर तुम भी सुखपूर्वक उसे चोरी करना। चोर लोगों ने वह सारा स्वीकार किया और वह भी त्रिदंडी वेश धारण कर तीन गाँवों के बीच के उपवन में जाकर रहा । तथा उन चोर लोगों ने जाहिर किया कि-यह ज्ञानी और महा तपस्वी महात्मा है, एक महीने में आहार लेते हैं। उसे बहुत कष्टों से थका हुआ और स्वभाव से ही दुर्बल देखकर लोग 'यह महा तपस्वी है' ऐसा मानकर परम भक्ति से उसकी पूजा करने लगे। उसको वे अपने घर आमन्त्रण देते, हृदय की सारी बातें कहते, निमित्त पूछते और वैभव के विस्तार को कहते थे। इस तरह प्रतिदिन उसकी सेवा करने लगे। परन्तु वह बगवृत्ति से अपने आपको लोगों को उपकारी रूप में दिखाता और चोरों को उनके भेद कहता था । और रात्री में चोरों के साथ मिलकर वह पापी घरों का धन चोरी करता था। कालक्रम से वहाँ ऐसा कोई मनुष्य न रहा कि जिसके घर चोरी न हुई हो। एक समय वे एक घर में सेंध खोदने लगे और घर के मालिक ने वह जान लिया, इससे उसने सेंध के मुख के पास खड़े रहकर देखा और एक चोर को सर्प के समान घर में प्रवेश करते पकड़ा, दूसरे सभी भाग गये । प्रभात का समय होते ही चोर को राजा के अर्पण किया। राजा ने कहा कि यदि तू सत्य कहेगा तो तुझे छोड़ दिया जायेगा। फिर उसे छोड़ दिया तो भी उसने सत्य नहीं कहा, तब चाबुक, दण्ड, पत्थर और मुट्ठी से बहुत मारते उसने सारा वृत्तान्त कहा, इससे शीघ्र ही उस त्रिदंडी को भी बाँधकर उपवन में से ले आया और वहाँ तक उसे इतना मारा कि जब तक उसने भी अपना दुराचार को स्वीकार नहीं किया। फिर वेद जानकार ब्राह्मण का पुत्र मानकर राजा ने
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy