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________________ ३६२ श्री संवेगरंगशाला अभ्याख्यान देने वाला है' ऐसा सर्वत्र बहुत निन्दा की। यह सुनकर भो क्षपक मुनि ! तू भी अभ्याख्यान द्वारा विरति प्राप्त कर कि जिससे इच्छित गुण की सिद्धि में हेतुभूत समाधि को शीघ्र प्राप्त करता है। यहाँ तक यह तेरहवां पाप स्थानक अल्पमात्र कहा है, अब अरति रति नामक चौदहवाँ पाप स्थानक कहते हैं। १४. अरति रति पाप स्थानक द्वार:-अरति और रति दोनों के द्वारा एक ही पाप स्थानक कहा है, क्योंकि उस विषय में उपचार (कल्पना) विशेष से अरति भी रति और रति भी अरति होती है। जैसे कि-मुलायम बिना वस्त्र को धारण करने में अरति होती है, वह वस्त्र मुलायम हो तो उसे धारण करने में रति होती है, मुलायम धागे वाला वस्त्र धारण करने में रति होती है, वही वस्त्र दूसरे ओर से जहाँ मुलायम धागे वाला न हो उसे धारण करते अरति होती है । जैसे इच्छित वस्तु को प्राप्ति नहीं होने से जिस पर अरति होती है वही अरति उसकी प्राप्ति होते ही रति रूप परिवर्तन हो जाती है। तथा यहाँ उस प्रस्तुत वस्तु की प्राप्ति से जो रति होती है, वही उस वस्तु के नाश होते अरति रूप में परिवर्तन होता है । अथवा किसी बाह्य निमित्त बिना भी निश्चय अरति मोह नामक कर्म के उदय से शरीर में ही अनिष्ट सूचक जो भाव होते हैं वह अरति जानना, उसके आधिन से आलसु, शरीर से व्याकुल वाला, अचेतन बना हुआ और इस लोक, परलोक के कार्य करने में प्रमादी बने जीव को किसी भी प्रकार के कार्य में उत्साहित करने पर भी कदापि उत्साही नहीं होता है, ऐसा वह मनुष्य इस जीव लोक में बकरी के गले में आंचल के समान निष्फल जीता है । तथा रति मोह कर्म के वश किसी भी वस्तु में राग से आसक्त चित्त वाला कीचड़ में फंसी हुई वृद्ध गाय के समान उस वस्तु से छुटने के लिये असक्त बना जीव इस लोक के कार्य को नहीं कर सकता है तो फिर अत्यन्त प्रयत्न से स्थिर चित्त से साध्य जो परलोक का कार्य है उसे वह किस तरह सिद्ध करेगा? इस तरह अरति और रति का संसार भावना का कारण जानकर हे क्षपक मुनि ! तू क्षण भर भी उसका आश्रय नहीं करना अथवा असंयम में अरति को भी कर और संयम गुणों में रति को कर। इस तरह करते तू निश्चय आराधना को भी प्राप्त करेगा । अधिक क्या कहें ? संसार का कारण भूत अप्रशस्त अरति रति का नाश करके संसार से छुड़ाने वाला प्रशस्त अधर्म में अरति करके धर्मरूपी बाग में रति को कर । हे धीर पुरुष ! यदि तुझे समता के परिणाम से इष्ट विषय में रति न हो और अनिष्ट में अरति न हो तो तू आराधना को प्राप्त करता है । संयम भार को उठाने में थका हुआ
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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