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________________ ३८० श्री संवेगरंगशाला कहा के समान जगत को जलाते हैं तथा प्रसन्न होने पर वही जगत का रक्षण करते हैं, इसलिए इनको तर्जना करोगे तो मरण के मुख में जाओगे । अतः चरणों में गिरकर इस महर्षि को प्रसन्न करो । यह सुनकर पत्नि सहित रुद्रदेव विनयपूर्वक कहने लगा कि - हे भगवन्त ! रागादि से आपका अपराध किया है, उसको आप हमें क्षमा करें, क्योंकि लोग में उत्तम मुनि का नमन करने वाले के प्रति वात्सल्य भाव होता है । फिर उनको मुनि कि- संसार का कारणभूत क्रोध है इसको कौन आश्रय दे ? उसमें भी श्री जैन वचन के जानकार तो विशेषतः स्थान कैसे दे ? केवल मेरी भक्ति में तत्पर बनकर यक्ष यह कार्य करता है इसलिए उसे ही प्रसन्न करो कि जिससे कुशलता को प्राप्त करो। उस समय विविध प्रकार से यक्ष को उपशान्त करके हर्ष से रोमांचित हुए सभी ब्राह्मणों ने भक्तिपूर्वक अपना निमित्त तैयार किया वह भोजन उस साधु को दिया और प्रसन्न हुये यक्ष ने आकाश में से सोना, मोहर की वर्षा की तथा भ्रमरों से व्याप्त सुगन्धी पुष्प समूह से मिश्रित सुगन्धी जल की वर्षा की । इस तरह कलह के त्याग से वह मातंग मुनि देव पूज्य बने । इसलिये हे क्षपक मुनि ! कलह में दोषों को और उसके त्याग में गुणों का सम्यग् विचार करके इस तरह कोई उत्तम प्रकार से वर्तन करें जिससे तेरे प्रस्तुत अर्थ की सिद्धि होती है । इस तरह बारहवाँ पाप स्थानक भी कुछ अल्प मात्र कहा है । अब तेरहवाँ अभ्याख्यान नामक पाप स्थानक कहते हैं । १३. अभ्याख्यान पाप स्थानक द्वार : - प्रायःकर दोषों का अभाव हो फिर भी दूसरे उद्देश्य को जो प्रत्यक्ष आरोपण करना उसे ज्ञानियों का अभ्याख्यान कहा है । यह अभ्याख्यान स्व-पर उभय के चित्त में दुष्टता प्रगट करने वाला है, तथा उस अभ्याख्यान का परिणाम वाला पुरुष कौन-कौन सा पाप का बन्धन नहीं करता ? क्योंकि अभ्याख्यान बोलने से क्रोध, कलह आदि पापों में जो कोई भी यह भव- परभव सम्बन्धी दोष पूर्व में कहे हैं वे सब पाप प्रगट होते हैं । यद्यपि अभ्याख्यान देने का पाप अति अल्प होता है, फिर भी वह निश्चय दस गुणा फल को देने वाला होता है । सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है कि 'एक बार भी किया हुआ वध, बन्धन, अभ्याख्यान दान, परधन हरण आदि पापों का सर्व से जघन्य अर्थात् कम से कम भी उदय दस गुणा होता है और तीव्र- तीव्रतर प्रदेष करने से तो सौ गुणा, हजार गुणा, लाख गुणा, करोड़ गुणा अथवा बहुत, बहुतर भी विपाक होता है ।' तथा सर्व सुखों का नाश करने में प्रबल शत्रु समान है, गणना से कोई संख्या नहीं है, किसी से रक्षण नहीं हो सकता है तथा अत्यन्त कठोर हृदय रूपी गुफा को चरणे में एक दक्ष 1
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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