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________________ श्री संवेगरंगशाला ३८५ बनाकर कहा-"जो उसका घातक था वही यहाँ पर ही आया है।" फिर प्रतिपूर्ण समस्या को लेकर माली राजा के पास गया और उसने उत्तरार्द्ध श्लोक सुनाया, इससे भयवश पीड़ित राजा मूर्छा से आँखें बन्द कर दुःखी होने लगा। फिर 'यह राजा का अनिष्ट करने वाला है' ऐसा मानकर क्रोधित हुए लोग उसे मारने लगे, तब उसने कहा कि-'मैं काव्य रचना नहीं जानता हूँ, लोगों को क्लेश करने वाला यह वाक्य मुझे साधु ने कहा है।' फिर क्षण में चैतन्य को प्राप्त कर राजा ने उसे मारने को रोका और पूछा कि-यह उत्तरार्द्ध श्लोक किसने बनाया है ? उसने कहा कि यह मुनि की रचना है, तब प्रधान को भेजकर राजा ने पुछवाया कि-यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं वन्दनार्थ आऊँ, मुनि के उसको स्वीकार करने से राजा वहाँ आये और उपदेश सुनकर श्रावक बना। महात्मा धर्मरूचि ने भी अपना पूर्व के दुराचरण का स्मरण करके उसकी आलोचना-प्रतिक्रमण करके, सर्व प्रकार के कर्मों को मूल से नाश करके द्वेष रूपी वृक्ष को मूल से उखाड़ कर अचल-अनुत्तर शिव सुख को प्राप्त किया। इस प्रकार जानकर हे सत्पुरुष ! तू फैलता हुआ दोष रूपी दावानल को प्रशम रूपी जल के बरसात से शान्ती कर । हे सुन्दर ! ऐसा करने से अति तीव्र संवेग प्राप्त कर तू भी स्वीकार किया हुआ कार्यरूपी समुद्र को शीघ्र पारगामी होगा। इस प्रकार ग्यारहवाँ पाप स्थानक कहा है, अब कलह नाम का बारहवाँ पाप स्थानक कहता हूँ। १२. कलह पाप स्थानक द्वार :-क्रोधविष्ट मनुष्य के वाग्युद्ध रूप वचन कलह कहलाता है और वह तन में तथा मन में प्रगट हुए असंख्य सुखों का शत्रु है । कलह कलुषित करने वाला है, वैर की परम्परा का हेतु उत्पन्न करने वाला है, मित्रों को त्रास देने वाला और कोति का क्षय काल है। कलह धन का नाश करने वाला है, दरिद्रता का प्रथम स्थान है, अविवेक का फल है और असमाधि का समूह है । कलह राजा के रूकावट का ग्रह है, कलह से घर में रही लक्ष्मी का भी नाश होता है, कलह से कुल का नाश होता है और अनर्थ को फैलाने वाला है। कलह से भवोभव अति दुस्सह दुर्भाग्य प्राप्त करता है, धर्म का नाश होता है एवं पाप को फैलाता है । कलह सुगति के मार्ग का नाशक है, कुगति में जाने के लिए सरलता की पगडण्डी है, कलह हृदय का शोषण करता है और फिर संताप होता है। कलह वेताल के समान मौका देकर शरीर को भी नाश करता है, कलह से गुणों की हानि होती है और कलह से समस्त दोष आते हैं । कलह स्व-पर उभय के हृदय रूपी महान पात्र में रहा हुआ स्नेह रस को तीव्र अग्नि के समान उबाल कर क्षय करता है।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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