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________________ ३७४ श्री संवेगरंगशाला प्रशंसा करते हैं और इस तरह अशुभ आचरण वाले वे ऐसा कठोर कर्म का बन्धन करते हैं कि जिससे अतीव कठोर दुःखों वाली संसार रूपी अटवी में बार-बार परिभ्रमण करता है। मनुष्य जैसे-जैसे मान करता है वैसे-वैसे गुणों का नाश करता है और क्रमशः गुणों का नाश होने से उसे गुणों का अभाव हो जाता है । और गुण संयोग से सर्वथा रहित पुरुष जगत में उत्तम वंश में जन्मा हआ भी गुण रहित धनुष्य के समान इच्छित प्रयोजन की सिद्धि नहीं कर सकता है । इसलिए स्व पर उभय कार्यों का घातक और इस जन्म पर-जन्म में कठोर दुःखों को देने वाले मान को विवेकी पुरुष दूर से सर्वथा यत्नपूर्वक त्याग किया है । इसलिए हे सुन्दर ! निर्दोष आराधना (मोक्ष सम्बन्धी) की इच्छा करता है तो तू भी मान को त्याग दे, क्योंकि प्रतिपक्ष का क्षय करने से स्वपक्ष की सिद्धि होती है, ऐसा कहा है। जैसे बुखार चले जाने से शरीर का श्रेष्ठ स्वास्थ्य प्रगट होता है, वैसे यह मान जाते हैं आत्मा का श्रेष्ठ स्वास्थ्य प्रगट होता है तथा उसी तरह ही आराधना रूपी पथ्य आत्मा को गुण करता है। सातवाँ पाप स्थानक मान के दोष से बाहुबली ने निश्चय ही क्लेश प्राप्त किया और उससे निवृत्त होते ही उसी समय केवल ज्ञान प्राप्त किया । यह इस प्रकार है : बाहुबली का दृष्टान्त तक्षशिला नामक नगर के अन्दर इक्ष्वाकु कुल में जन्मे हुए जगत् प्रसिद्ध बाहुबली यथार्थ नाम वाले श्री ऋषभदेव का पुत्र राजा था। अट्ठानवें छोटे भाईयों ने दीक्षा लेने के बाद भरतचक्री की सेवा को नहीं स्वीकारने से भरत ने बाहुबली को इस प्रकार कहा-राज्य को शीघ्र छोड़ दो अथवा आज्ञा पालन कर अथवा अभी ही युद्ध में तैयार होकर सन्मुख आ जाओ। यह सुनकर असाधारण भुजा बल से अन्य सुभटों को जीतने वाला बाहुबली ने भरत चक्रवर्ती के साथ युद्ध प्रारम्भ किया। वहाँ मदोन्मत्त हाथी मरने लगे, योद्धाओं का विशेष रूप में नाश होने लगा, कायर पुरुष भागने लगे, रथों के समूह टूट रहे थे, योगी का समूह आ रहा था, फैलता हुआ खून चारों तरफ दिख रहा था, मानो भयंकर यम का घट हो, ऐसा दिखता था महान भय का एक कारण बाणों से आच्छादित भूतल वाला था, हाथी के झरते मदरूपी बादल वाला था, सूर्य को चिन्ता कराने वाला अथवा शूरवीर के बाण फेंकने की प्रवृत्ति वाला, मांस भक्षण के लिए घूमते तुष्ट याचकों वाला और अनेक लोगों की मृत्यु रण मैदान को देखकर एक दयारस से युक्त मन वाला महायशस्वी वह बाहुबली
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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