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________________ ३६८ श्री संवेगरंगशाला वसन्तोत्सव है और एकाग्रचित्तता रूपी बावड़ी को सुखाने वाली ग्रीष्म ऋतु की गरमी का समूह है । ज्ञानादि निर्मल गुण रूप राजहंस के समूह को विघ्नभूत वर्षा ऋतु है और महान् आरम्भ रूप अत्यधिक अनाज उत्पन्न करने के लिये शरद ऋतु का आगमन है । परिग्रह स्वाभाविकता के आनन्द रूप विशिष्ट सुख रूप कमलिनी के वन को जलाने वाला हेमन्त ऋतु है और अति विशुद्ध धर्मरूपी वृक्ष के पत्तों का नाश करने वाला शिशिर ऋतु है । मृर्च्छारूपी लता का अखण्ड मण्डप है, दुःख रूपी वृक्षों का वन है, और संतोष रूप शरद के चन्द्र को गलाने वाला अति गाढ़ दाढ़ वाला राहु का मुख है । अत्यन्त अविश्वास का पात्र है, और कषायों का घर है ऐसा परिग्रह मुश्किल से रोक सकते हैं, ऐसा ग्रह के समान किसको पीड़ा नहीं देता ? इसी कारण से ही बुद्धिमान धन, धान्य, क्षेत्र - जमीन, वस्तु - मकान, सोना, चाँदी, पशु, पक्षी, नौकर आदि तथा कुप्य वस्तुओं में हमेशा नियम करते हैं । अन्यथा यथेच्छ अनुमति देना अतीव कष्ट से रोकने वाला स्व-पर मनुष्यों को दान करने की इच्छा रोकने वाली और जगत में विजयी बनी, इस इच्छा को किसी तरह से कष्ट द्वारा भी पूर्ण नहीं होती है । क्योंकि इस संसार में जीव को एक सौ से, हजार से, लाख से, करोड़ से, राज्य से, देवत्व से और इन्द्रत्व से भी सन्तोष नहीं होता है । कोड़ी बिना का विचारा गरीब कोड़ी की इच्छा करता है और कोड़ी मिलने के बाद रुपया को चाहता है और वह मिलने पर सोना मोहर की इच्छा करता है । यदि वह मिल जाती है तो उसमें एक-एक की उत्तरोत्तर वृद्धि करते सौ सोना मोहर की इच्छा करता है, उसे भी प्राप्त कर हजार और हजार वाला लाख की इच्छा करता है, लखपति करोड़ की इच्छा करता है और करोड़पति राज्य की इच्छा करता है, राजा चक्रवर्ती बनने की इच्छा करता है और चक्रवर्ती देवत्व की इच्छा करता है । किसी तरह उसे वह भी मिल जाए तो वह इन्द्र बनने की इच्छा करता है और वह मिलने पर भी इच्छा करे तो आकाश के समान अनन्त होने से अपूर्ण ही रहती है । या घाट के समान अनुक्रम से जिसकी इच्छा अधिक अधिक बढ़ती है वह सद्गति को लात मारकर दुर्गति का पथिक बनता है। बार-बार भी गिनने से वह किसी तरह भी दानी या धनवान नहीं होता, इस तरह जिसके भाग्य में अल्प धन है वह क्या कोटीश्वर हो सकता है ? क्योंकि पूर्व कर्म जो बन्धन किया हो उसी मर्यादा से उतना ही प्राप्त करता है, द्रोणमेघ की वर्षा होने पर भी पर्वत के शिखर पर पानी नहीं टिकता है। इस तरह निश्चय अनेक प्रवृत्ति करने पर भी अल्प पुण्य वाला यदि बहुत धन की इच्छा
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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