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________________ श्रो संवेगरंगशाला ही महासेन राजा के पीछे चला। उस समग्र सेना से घिरा हुआ श्रेष्ठ घोड़े के ऊपर बैठे हुए और उसके ऊपर ऊँचा-श्वेत छत्र युक्त वह राजा जब थोड़ी दूर गया तब गाल कुछ विकसित हों, इस तरह धीरे से हँसकर उस पुरुष ने एक राजा के सिवाय अन्य समग्र सेना को स्तम्भित कर दिया। राजा भी उस समग्र सेना को चित्र समान स्तम्भित देखकर अत्यन्त विस्मय होकर विचार करने लगा कि-अहो ! महापापी होने पर भी ऐसी सुन्दर शक्ति वाला कैसे? ऐसा शक्तिशाली अकार्य करने वाला ज्ञानी पुरुषों ने निषेध किया है, किन्तु यह ऐसा अकार्य क्यों करता है ? मैं मानता हूँ कि यह स्तम्भादि करने वाले मन्त्र भी ऐसे ही अधम होंगे, इससे परस्पर सदृश प्रकृति वाला उनका सम्बन्ध हुआ है अतः ऐसा सोचने से क्या प्रयोजन है ? मैं भी इसे स्तम्भित करने के लिए सदगुरु के पास से लम्बे काल से अभ्यास किये स्तम्भन विद्या का स्मरण करूँ। उसके वाद सर्व अंगों में रक्षा मन्त्र के अक्षरों का स्थापन करके, वायु रूप श्वासोच्छवास का निरोध (कुम्भक) करके नासिका के अन्तिम भाग में नमाये हुए स्थिर नेत्र कमल वाले राजा कमल के मकरन्द रस के समूह समान सुन्दर सुवास तथा श्रेष्ठ फैलने वाला प्रकाश किरणों वाला स्तम्भन कारक "परब्रह्म" का स्मरण करने लगे उसके पश्चात् क्षणमात्र समय जाते जब राजा ने उस पुरुष को ओर देखा, तब कुछ हंसते हुए उस पुरुष ने कहा-हे राजन ! चिरंचोव, पहले मेरो गति मन्द हो गई थी, वह तेरी स्तंभन विद्या से अब मेरी पवन वेग गति हो गई है। इससे यदि तुझे स्त्री का प्रयोजन हो तो शीघ्रगति से पीछे आओ, ऐसा बोलते वह शीघ्रता से चलने लगा। उस समय राजा ने विचार किया कि-अहो ! मेरी चिरकाल से अध्ययन की हुई विद्या भी आज निष्फल क्यों गई ? अथवा एक पराक्रम सिवाय अन्य सभी निष्फल हो, परन्तु अब मैं अपने पराक्रम से ही कार्य सिद्ध करूँगा, ऐसा सोचकर दृढ़ चित्त वाला और बढ़ते उत्साह वाले राजा ने तुरन्त केवल एक तलवार को साथ लेकर उसके पीले चलने लगा। 'यह राजा जा रहा है, यह देवी जा रही है, और यह वह पुरुष जा रहा है।' ऐसा लोग बोल रहे थे इतने में तो वह बहुत दूर पहुँच गया। प्रति समय चाबूक के मारने से घोड़े को दौड़ाते तीव्रगति से मार्ग का उल्लंघन करके राजा जब थोड़े अन्तर पर रहे फिर भी उस पुरुष को नहीं पकड़ सका, इतने में तो बादल बिना की बिजली अदृश्य होती है वैसे रानी अदृश्य हो गई और वह पुरुष भी किल के समान निश्चल बनकर राजा के सन्मुख खड़ा रहा। राजा ने उसे अकेला देखकर विचार किया कि क्या स्वप्न है अथवा कपट है, या मेरी दृष्टि बंधन की है ? ऐसे विकल्प क्यों करूँ ? इसे ही जान लूं
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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