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________________ ३६४ श्री संवेगरंगशाला के नाल की उपमा धारण करते हैं । आनन्द के बिन्दु गिरते सुन्दर विशाल चन्द्र के बिम्ब समान स्त्री का मुख रूपी शतपत्र कमल है, वह कामी पुरुष रूपी चकोर के मन को उल्लास बढ़ाता है । भ्रमर के समूह रूप एवं काजल समान श्याम उसका केश समूह, चित्त में जलते कामाग्नि का धूम समूह समान शोभता है । इस तरह स्त्री के अंग के सर्व अवयवों के ध्यान में आसक्त रहता है, उससे शून्य चित्त बना हो, उस स्त्री के हाड़ के समूह से बना हो, नारी से अधिष्ठित बना हो अथवा सर्वोत्त्म के सम्पूर्ण उसके परिणाम रूप तन्मय बना हो, इस तरह बोलता है कि-अहो ! जगत में कमल पत्र तुल्य नेत्रों वाली युवतियों की हंस गति को जीतने वाली गति का विलास, अहो ! मनोहर वाणी ! और अर्ध नेत्रों से कटाक्ष फेंकने की चतुराई। अहो ! कोई अति प्रशस्त है । अहो ! उसका अल्प विकसित कैरव पुष्प समान, स्फुराय समान दांत का सामान्य दिखने वाला सुखदः मधुर हास्य । अहो ! सुवर्ण के गेंद के समान उछलते स्थूल स्तन भाग । अहो ! देखो, उसकी नाच करती वलय से युक्त प्रगट विकसित नाभि कमल और कंचक को तोड़ते उसका बहुत बड़ा मरोड़ ! इसमें से एक-एक भी दुर्लभ है, तो उसके समूह को तो कहना ही क्या ? अथवा संसार का सारभूत उन स्त्रियों का क्या वर्णन करना ? कि जिसके चिन्तन-स्मरण भी शतमूल्य, दर्शन सहस मूल्य, वार्तालाभ कोटि मूल्य और अंग का संभोग अमूल्य है। __इस तरह वह विचार करता उसकी चिन्ता, विलाप और मन, वचन, काया की चेष्टाओं से उन्मत्त के समान, मूछित के समान और सर्व ग्रहों से चेतना नष्ट हुई हो इस तरह दिन या रात्री, तृषा या भूख, अरण्य या अन्य गांव आदि, सुख या दुःख, ठण्डी या गरमी, योग्य या अयोग्य कुछ भी नहीं जानता है, किन्तु बायें हथेली में मुख को छुपाकर निस्तेज होकर वह बार-बार लम्बे निःश्वास लेता है, पछताता है, कम्पायमान होता है, विलाप करता है, रोता है, सोता है और उबासी खाता है। इस तरह अनन्त चिन्ता की परम्परा से खेद करते कामी के दुर्गति का विस्तार करने वाला, विकारों को देखकर सर्व मैथुन को, बुद्धिमान द्रव्य से, देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी और तिर्यंच सम्बन्धी, क्षेत्र से उर्ध्व, अधो और तिर्जा लोक में, काल से दिन अथवा रात्री तथा भाव से राग और द्वेष से भी मैथुन दोषों को बड़े समूह महापाप और सर्व कष्टों का कारण होने से मन द्वारा भी चाहना नहीं करना । क्योंकि इसकी चिन्ता करने से प्रायः पर-स्व स्त्री के भोगने के दोष-गुण के पक्ष को नहीं जानता, श्रेष्ठ बुद्धि वाले को भी जंगली हाथी के समान नहीं रुके, उसका
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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