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________________ श्री संवेगरंगशाला ३६१ नामक पाप स्थानक कहा, अब तीसरा अदत्तादान नामक पाप स्थानक कहते हैं । ३. अदत्तादान द्वार : - कीचड़ जैसे जल को, मैल जैसे दर्पण को और धुँआ जैसे दीवार के चित्रों को मलिन करता है वैसे परधन लेन के स्मरण भी चित्त रूपी रत्न को मलिन करता है । इसमें आसक्त जीव धर्म का नाश विचार बिना करने वाला, सत्पुरुषों ने पालन की हुई कुल व्यवस्था का भी अनादर करने वाला, कीर्ति को कलंक नहीं दिखने वाला, जीवन की भी बेकदरी करके, मृग समान गीत के शब्द को, पतंग जैसे दीप की ज्योति को, मत्स्य जैसे जल में, लोहे के कांटे में मांस के टुकड़ों को, भ्रमर जैसे कमल को और जंगली हाथी जैसे हथणी के स्पर्श करने की इच्छा करता है, वैसे वह पापी परधन को हरण करता है और उसी जन्म में हाथ का छेदन, कान का छेदन, नेत्रों का नाश, करवत से काटा जाना अथवा मस्तक आदि अंगों का छेदन-भेदन होता है । पर के धन को, चोरी को आनन्द मानता है और अपना धन जब दूसरा हरण करता है तब मानो शक्ति नामक शस्त्र से सहसा भेदन हुआ हो, इस तरह दुःखी होता है । लोग भी अन्य अपराध करने वाले अपराधी का पक्ष करते हैं, परन्तु चोरी के व्यसनी का उसके स्वजन भी पक्ष नहीं करते हैं । अन्य अपराध करने वाले को सगे सम्बन्धी घर में रहने के लिये स्थान देते हैं, परन्तु परधन की चोरी करने वाले को माता भी घर में स्थान नहीं देती है और किसी तरह भी जिसके घर में उसे आश्रय दिया जाता है वह उसे बिना कारण ही महा अपयश में, दुःख में और महा संकट में फँसा देता है । मनुष्य महा कष्ट से लम्बे Sarah बाद विविध आशाओं से कुछ धन एकत्रित करता है । ऐसा प्राण प्रिय समान उस धन की जो चोरी करता है उससे अधिक पापी और कौन है ? संसारी जीवों को यह कष्ट से मिला हुआ धन सर्व प्रकार से प्राण तुल्य होता है, उसका उस धन की चोरी करने वाला पापी उसको जीते ही मारता है । वैभव चोरी होते दीन मुख वाले कितने भूख से मरते हैं, जब कृपण के समान कितने दूसरे के शोकाग्नि से जलते हैं । करुणा रहित उस समय जन्म लेने वाले पशु आदि का हरण करता है, इससे माता से अलग हुए दुःखी वे बच्चे मरते हैं । इस तरह अदत्तादान (चोरी) करने वाला प्राणि का वध करता है और झूठ भी बोलता है, इससे इस जन्म में भी अनेक प्रकार के संकटों और मृत्यु को प्राप्त करता है । तथा चोरी के पाप से जीव जन्मान्तर में दरिद्रता, भीरुता और पिता, पुत्र, स्त्री, स्वजन का वियोग इत्यादि दोषों को प्राप्त करता है । इसलिए हे भाई ! सत्य कहता हूं कि - निश्चय ही सर्व प्रकार का परधन
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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