SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला ३५७ धर्म का विनाशक जानना । भले जटाधारी हो, शिखाधारी या मुण्डन किया हो, वृक्ष के छिलकों के वस्त्र धारण करने वाले हों अथवा नग्न हों फिर भी असत्यवादी लोक में पाखंडी और चण्डाल कहलाता है । एक बार भी असत्य बोलने से अनेक बार बोला हुआ सत्य वचनों का नाश करता है। और इस तरह यदि सत्य बोले फिर भी वह मृषावादी में तो अविश्वास पात्र ही बनता है। इसलिए झूठ नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि लोक में असत्यवादी निन्दा का पात्र बनता है और अपने प्रति अविश्वास प्रगट करता है। राजा भी मृषावादी के दुष्ट प्रवृत्ति को देखकर जीभ छेदन आदि कठोर दण्ड देता है। मृषा बोलने से उत्पन्न हुए पाप के द्वार जीव को इस जन्म में अपकीर्ति और परलोक में सर्व प्रकार की उद्यमगति होती है। इसलिए परलोक की आराधना के एकचित्त वाले आत्मा, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य अथवा भय से भी मृषावाद को नहीं बोलना चाहिए। इर्षा और कषाय से भरा हुआ विचारा मनुष्य मृषावाद बोलने से दूसरे का उपघात करता है, ऐसा वह नहीं जानता कि मैं अपना ही घात करता हूँ । लांच (रिश्वत) लेने में रक्त है, कूटसाक्षी देने वाला है, मृषावादी है, आदि लोगों के धिक्कार रूप पुद्गल से मारा जाता है और महा भयंकर नरक में गिरता है। उसमें लांच लेने में रक्त मनुष्य की कीर्ति अपना प्रयोजन, मन की शान्ति अथवा धर्म नहीं होता है, परन्तु दुर्गति गमन ही होता है। झूठी साक्षी देने वाला अपना सदाचार, कुल, लज्जा, मर्यादा, यश, जाति, न्याय, शास्त्र और धर्म का त्याग करता है तथा मृषावादी बोलने वाला जीव इन्द्रिय रहित, जड़त्व, गंगा, खराब स्वर वाला, दुर्गन्ध मुख वाला, मुख के रोग वाला और निन्दा पात्र बनता है। __ मृषा वचन यह स्वर्ग और मोक्ष मार्ग को बन्द करने वाली जंजीर है, दुर्गति का सरल मार्ग है और अपना प्रभाव नाश करने में है । जगत में भी सारे उत्तम पुरुषों ने मृषा वचन की जोरदार निन्दा की है, झूठा जीव अविश्वासकारी होता है, इसलिए मृषा नहीं बोलना चाहिए। यदि जगत में भी जो दयालु है वह सहसा कुछ भी झूठ नहीं बोलते हैं, फिर यदि दीक्षित भी झूठ बोले तो ऐसी दीक्षा से क्या लाभ ? सत्य भी वह नहीं बोलना कि जो किसी तरह असत्य-अहित वचन हो, क्योंकि जो सत्य भी जीव को दुःखजनक बने वह सत्य भी असत्य के समान है । अथवा जो पर को पीडाकारक हो उस हास्य से भी नहीं बोलना चाहिए। क्या हास्य से खाया हुआ जहर कड़वा फल देने वाला नहीं बनता है ? इसलिए हे भाई ! सत्य कहता हूँ कि--निश्चय मृषा वचन को सर्व प्रकार से त्याग कर, यदि उसका त्याग किया, तो कुगति
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy