SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला ३३६ अपने आपको छोड़ता है अथवा इससे विपरीत रूप से भिक्षार्थ भ्रमण करता है तो क्षपक को छोड़ता है, उसकी सार सम्भाल नहीं कर सकता है, उस क्षपक मुनि करने से उसे साधु धर्म को अवश्य दूर करता है। क्योंकि निर्यामक के अभाव में तृषा-क्षुधा आदि से मन्द उत्साही क्षपक बन जाता है। अकल्प्य आहारादि उपयोग अथवा दूसरे के पास याचनादि करता, अपभ्राजना (अपमान) करता है, अथवा असमाधि से मर जाये और दुर्गति में भी चला जाता है इत्यादि दोष लगने के कारण क्षपक के पास जघन्य से दो ही निर्यामक होने चाहिये। तथा संलेखना करने वाले को निर्यामणा कराता है ऐसा सुनकर सुविहित आचार वाले सर्व मुनियों ने वहीं जाना चाहिए और अन्य कार्य की गौणता रखनी चाहिए। क्योंकि यदि तीव्र भक्ति राग से संलेखना करने वाले के पास जाता है, वह दैवी सुखों को भोग कर उत्तम स्थान रूप मुक्ति को प्राप्त करता है। जो जीव एक जन्म में भी समाधि मरण से मरता है वह सात या आठ भव से अतिरिक्त अधिक बार संसार में परिभ्रमण नहीं करता है । श्रेष्ठ अनशन के साधक को सुनकर भी यदि साधु तीव्र भक्तिपूर्वक वहाँ नहीं जाता तो उसकी समाधि मरण में भक्ति कैसी ? और जिसको समाधि मरण में भक्ति भी नहीं हो, उसे मृत्युकाल में समाधि मरण किस तरह हो सकता है ? तथा शिथिलाचारी साधुओं को क्षपक के पास में प्रवेश करने में देना नहीं चाहिए, क्योंकि उनकी सावद्य (पापकारी) वाणी से क्षपक मुनि को असमाधि उत्पन्न होती है। तथा क्षपक मुनि को तेल या अर्क आदि के कुल्ले बार-बार कराने चाहिये कि जिससे जीभ और कान का बल टिका रहे और उच्चारण स्पष्ट हो अथवा मुख निर्मल रहे। इस तरह धर्मोपदेश से मनोहर और संवेगी मन रूपी भ्रमर के लिए खिले हुए पुष्पों का उद्यान समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला ममत्व विच्छेद नाम के तीसरे द्वार में चौथा निर्यामक नाम का अन्तर द्वार कहा है। इस प्रकार निर्यात्मकादि अनशन की सामग्री हो तब आहार त्याग की इच्छा वाले क्षपक मुनि का सर्व वस्तुओं में इच्छा रहित जानने के बाद अनशन उच्चारन करे, वह इच्छा रहित भोजक आदि दिखाने से जान सकते हैं। इसलिए अब वह दर्शन द्वार को अल्पमात्र कहते हैं। पांचवाँ दर्शन द्वार :-उसके बाद प्रति समय बढ़ते उत्तम शुद्ध परिणाम वाला वह क्षपक महात्मा मरूभूमि के अन्दर गरमी से दुःखी हुआ मुसाफिर के समान अनेक पत्तों से युक्त वृक्ष को प्राप्त करके अथवा रोग से अत्यन्त पीड़ित
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy