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________________ ३३६ श्री संवेगरंगशाला करता है, क्या मैं निर्वाण पद को प्राप्त करूँगा या नहीं ?' उसने कहा कि हे मुनीश! निर्वाण के लिये संशय क्यों करते हो ? क्योंकि गंगा नदी के पार उतरते तुम भी शीघ्र कर्मक्षय करोगे। यह सुनकर आचार्य श्री गंगा पार उतरने के लिये नाव में आकर बैठे । नाव चलने लगी, परन्तु कर्म दोष से दाव में जहाँ-जहाँ वे बैठने लगे, वह नाव का विभाग डूबने लगा, इससे 'सर्व का नाश होगा' ऐसी आशंका से निर्यामक ने अणिका पुत्र आचार्य को नाव में से उठाकर पानी में फेंक दिया। फिर परम प्रशम रस में निमग्न अति प्रसन्न चित्त वृत्ति वाले, सम्पूर्णतया सभी आश्रव द्वार को रोकने वाले, द्रव्य और भाव से परम वैराग्य को प्राप्त करते, अति विशुद्ध को प्राप्त करते वह आचार्य शुक्ल ध्यान में स्थिर होने से उसके द्वारा कर्मों का क्षय करते, केवल ज्ञान प्राप्त किया । जल के संथारा में रहने पर भी सर्व योगों का सम्पूर्ण निरोध करते, उन्होंने मोक्ष पद प्राप्त किया और उसके द्वारा मन वंछित कार्य की सिद्धि की। इस तरह जल संथारे पर अणिका पुत्र का वर्णन किया और वस संथारा के विषय में चिलाती पुत्र का दृष्टान्त है वह पूर्व में कहा है । इस तरह अन्य भी जिस-जिस संथारे में मृत्यु के समय जिस-जिस आत्मा को समभाव से उत्तम समाधि को प्राप्त करता है, वह सर्व उनका संथारा जानना। इस तरह संथारा में रहता हुआ वह क्षपक मुनि सर्वश्रेष्ठ तप समाधि में रहकर अनेक जन्मों तक पीड़ा देने वाले कर्मों को तोड़कर समय व्यतीत करता है, चक्रवर्ती को भी वह सुख नहीं और सारे उत्तम देवों को भी वह सुख नहीं है जो सुख द्रव्य, भाव संथारे में रहे राग रहित वैरागी मुनि को है। इस तरह संथारे में रहा हुआ अति विशुद्ध योग वाला मुनि हाथी के समान अनेक काल के एकत्रित हुए कर्मरूपी वृक्षों के जंगल को चारित्र द्वारा खत्म करता हुआ विचरता है। इस तरह कामरूपी सर्प को पराभव करने में गरूड़ के उपमायुक्त और संवेग मनरूपी भ्रमर के लिए खिले हुए पुष्पों वाली उद्यान के समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला ममत्व विच्छेद नाम के तीसरा मूल द्वार में तीसरे संथारा नामक अन्तर द्वार कहा । अब संथारे में रहने वाले क्षपक मुनि को निर्यामक बिना समाधि की प्राप्ति नहीं होती है, इसलिए उस निर्यामक द्वार को कहते हैं। चौथा निर्यामक द्वार :-उसके बाद जिसने द्रव्य से शरीर की संलेखना की हो और भाव से परीषह तथा कषाय की जाल को तोड़ी है, वह क्षपक मुनि निर्यामणा करने वाले जो गुरू हो उसकी इच्छा करे, वह निर्यामक छत्तीस गुण वाला, प्रायश्चित के विधि में विशारद-गीतार्थ, धीर, पाँच समिति का
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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