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________________ ३३४ श्री संवेगरंगशाला लगे। इस तरह विहार करते बहुत काल के बाद वे द्वारका में पधारे। वहाँ श्री रैवतगिरि के ऊपर देवों ने भगवन्त का समवसरण की रचना की । भगवन्त समवसरण में विराजमान हुए और गजसुकुमार मुनिशमशान में कायोत्सर्ग करके खड़े रहे। फिर किसी कारण से उस प्रदेश में सोमशर्मा आया। 'यह वही है कि जिसने मेरी पुत्री से विवाह करके त्याग किया है' ऐसा विचार करते तीव्र क्रोध चढ़ गया । उसको मार देने की इच्छा से उसने उसके मस्तक ऊपर मिट्टी की पाल बाँधकर, उस पाल के अन्दर जलते अंगारे भर दिये, तब उसका मस्तक अग्नि से जलने लगा, परन्तु गजसुकुमार शुभ ध्यान में स्थिर रहते अंतक्षुत केवली बनकर मोक्ष गये । इस तरह उस गजसुकुमार का अग्नि का संथारा जानना । अब जिससे जल का संथारा हुआ था उस अणिका पुत्र आचार्य का प्रबन्ध कहते हैं। जल संथारे पर अणिका पुत्र आचार्य की कथा श्री पुष्पभद्र नगर में प्रचण्ड शत्रु पक्ष को चूरन करने का व्यसनी पुष्पकेतु नामक महान राजा था। उसकी पुष्पवती नाम की रानी थी। उस रानी से युगल रूप पुष्पचूल नामक पुत्र और पुष्पचूला नामक पुत्री ने जन्म लिया था। उन दोनों का परस्पर अति स्नेह वाला देखकर राजा ने उनका वियोग नहीं करने के कारण से परस्पर उनका विवाह किया। पुष्पवती को इसके कारण निर्वेद उत्पन्न हुआ और दीक्षा लेकर देवलोक में उत्पन्न हुई। वहाँ से सुख सोई उस पुष्पचूला को करुणा से प्रतिबोध करने के लिए स्वप्न में भयंकर दुःखों से अति दुःखी नरक के जीवों को तथा नारकों को बतलाने लगी। फिर भयंकर स्वरूप वाले उन स्वप्नों को देखकर उसी समय जागृत होकर उसने राजा को नरक का वृत्तान्त कहा । उसने भी रानी के विश्वास के लिए सभी पाखण्डियों को बुलाकर पूछा कि-भो ! नरक कैसा होता है ? और उसमें दुःख कैसा होता है ? उसे कहो। अपने-अपने मतानुसार उन्होंने नरक का वृत्तान्त कहा, परन्तु रानी ने उसे स्वीकार नहीं किया। फिर राजा ने बहुश्रुत सर्वत्र प्रसिद्ध एवं स्थविर अणिका पुत्र आचार्य को बुलाकर पूछा-उन्होंने नरक का यथास्थित वर्णन किया। इससे भक्तिपूर्ण हृदय वाली पुष्पचूला रानी ने कहा कि-हे भगवन्त ! क्या आपने भी स्वप्न में यह वृत्तान्त देखा है ? गुरू महाराज ने कहा कि-हे भद्रे ! जगत में ऐसा कुछ है कि जिस वस्तु को श्री जैनेश्वर परमात्मा के आगम रूप दीपक के बल से जिसको नहीं जान सकते । इस नरक का वृत्तान्त तो कितना ज्ञानवान् है ?
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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