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________________ श्री संवेगरंगशाला ३२७ लिए वह साध्वी भी आई थी, यह वृत्तान्त सुनकर अल्प द्वेषवश कहा किअरे ! नीच मनुष्यों की बात करने से क्या लाभ है ? अपने कार्य साधने में उद्यम करो ! कामांध बने हुये को अकार्य करना सुलभ ही है, इसमें निन्दा करने योग्य क्या है ? इस तरह परस्पर बात करने से मुनि को सूक्ष्म राग और साध्वी को सूक्ष्म द्वेष हुआ । इस कारण से नीच गोत्र का बन्धन किया और प्रमाद के आधीन उन्होंने गुरू महाराज के पास सम्यग् आलोचना बिना ही दोनों अन्त में अनशन करके मर गये, और केसर कपूर समान अति सुगन्ध के समूह से भरे हुये सौधर्म देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुये । वहाँ पाँच प्रकार के विषय सुखों को भोगते सूरतेज का जीव अपना आयुष्य पूर्ण कर बड़े धनवान वणिक के घर पुत्र रूप में जन्म लिया और देवी भी नट के घर में पुत्री रूप में जन्म लिया । दोनों ने योग्य उम्र में कलाएँ ग्रहण कीं । फिर उन दोनों ने यौवनवय को प्राप्त किया, परन्तु किसी तरह सूरतेज के जीव को युवतियों में और उस नट कन्या को पुरुष प्रति राग बुद्धि नहीं हुई । इस प्रकार उनका काल व्यतीत होते भाग्य योग से एक समय किसी कारण उनका मिलाप हुआ और परस्पर अत्यन्त राग उत्पन्न हुआ । इससे कामाग्नि से जलते उस दत्त के समान माता, पितादि स्वजनों ने रोकने पर भी लज्जा छोड़कर नट को बहुत दान देकर उस नट कन्या के साथ विवाह किया और घर को छोड़कर उन नटों के साथ घूमने लगा । बहुत समय दूर देश परदेश में घूमते उसे किसी समय मुनि का दर्शन हुआ और मुनि दर्शन का उहापोह (चिन्तन) होने से पूर्व जन्म का ज्ञान स्मरण हुआ । इससे पूर्व जन्म के ज्ञान वाले उस महात्मा ने विषय राग को छोड़कर दीक्षा को स्वीकार की और शुद्ध आराधना करते अन्त में मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए । इस तरह आलोचना बिना का अल्प भी अतिचार के हित को नाश करने में समर्थ और परिणाम में दुःखदायी जानकर हितकर बुद्धि वाला जीव पूर्वअनुसार विधि से वह उत्तम प्रकार से आत्मा की शुद्धि ( आलोचना ) कर कि जिससे शुक्ल ध्यान रूप अग्नि से सारे कर्मरूपी वन को जलाकर लोक के अग्रभाग रूपी चौदह राजपुरुष के मस्तक का मणि सिद्ध, बुद्ध, निरंजन, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य वाला, अक्षय, निरोगी, शाश्वत, कल्याणकारी, मंगल का घर और अजन्म बना हुआ वह पुन: जहाँ से संसार में नहीं आना है, ऐसा उपद्रव रहित मुक्ति रूपी स्थान को प्राप्त करता है । इस प्रकार से प्रवचन (आगम) समुद्र के पारगामी और चारित्र शुद्धि के लिए प्रायश्चित की विधि के जानकार वह आचार्य उस आराधक को समझा
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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