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________________ ३२० श्री संवेगरंगशाला में दृढ़ शुद्ध चित्त वाले और अप्रमत्त भाव में प्रायश्चित करने वाले को पाप की शद्धि होती है। इस कारण से इस विषय में नित्य बाह्य अभ्यन्तर समग्र इन्द्रियों से धर्मी होना चाहिए, परन्तु मिथ्या आग्रह वाला नहीं होना चाहिए। इस तरह क्रम प्राप्त प्रायश्चित द्वार को संक्षेप से कहा है, अब फल द्वार को कहते हैं। इसमें शिष्य प्रश्न करते हैं कि-यहाँ पर आलोचना अधिकार में पूर्व में आलोचना का जो गुण कहा है वह गुण आलोचना को देने के बाद होने वाला वही आलोचना का फल है, अतः पुनः इस द्वार को कहने से क्या लाभ है ? इसका समाधान कहते हैं कि-तुम कहते हो वह पुनरुक्त दोष यहाँ नहीं है, क्योंकि पूर्व में जो कहा है वह गुण आलोचना का अनन्तर फल है और यहां इस द्वार का प्रस्ताव परम्परा फल को जानने के लिये कहा है। १०. आलोचना का फल :-राग-द्वेष और मोह को जीतने वाले श्री जैनेश्वर भगवान ने इस आलोचना का फल शरीर और आत्मा के दुःखों का क्षय होने से शाश्वत सुख वाला मोक्ष प्राप्त कहा है, क्योंकि-सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप को मोक्ष का हेतु कहा है । चारित्र होने पर सम्यक्त्व और ज्ञान अवश्य होता है। वह चारित्र विद्यमान होने पर भी प्रमाद दोष से मलिनता को प्राप्त करते हुये उसके लाखों भवों का नाश करता है, परन्तु उसकी शुद्धि इस आलोचना के द्वारा करता है। और शुद्ध चारित्र वाला संयम में यत्न करते अप्रमादी, धीर, साधु शेष कर्मों को क्षय करके अल्पकाल में श्रेष्ठ केवल ज्ञान को प्राप्त करता है। और फिर केवल ज्ञान को प्राप्त करने वाले, सुरासुर मनुष्यों से पूजित और कर्म मुक्त बने, वह भगवान उसी भव में शाश्वत सुख वाला मोक्ष को प्राप्त करता है। इस प्रकार प्रायश्चित का फल अल्पमात्र इस द्वार द्वारा कुछ कहा है और यह कहने से प्रस्तुत प्रथम आलोचना विधान द्वार पूर्ण रूप में कहा है। हे क्षपक मुनि ! इसको सम्यक् रूप जानकर आत्मोत्कर्ष का त्यागी-निराभिमानी और उत्कृष्ट आराधना विधि की आराधना करने की इच्छा वाला वह तू हे धीर पुरुष ! बैठते, उठते आदि में लगे हुए अल्पमात्र भी अतिचार का उद्धार कर, क्योंकि जैसे जहर का प्रतिकार नहीं करने से एक कण भी अवश्य प्राण लेता है, वैसे ही अल्प भी अतिचार प्रायःकर अनेक अनिष्ट फल को देने वाला होता है। इस विषय पर सूरतेज राजा का उदाहरण है । वह इस प्रकार है :- .
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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