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________________ श्री संवेगरंगशाला ३१३ मिलना दुर्लभ है, व्याधि को बढ़ाने वाला, लज्जा आदि अधम दोष भयंकर है, इसलिए धन्य इस गुरूदेव के चरण-कमल के पास लज्जादि को छोड़कर सम्यग् आलोचना कहकर अप्रमत्त दशा में संसार के दुःखों की नाशक क्रिया अनशन को स्वीकार करूँगा।' इस तरह शुभ भावपूर्वक आलोचना करता है और वह शुभ भाव वाले को 'मैं धन्य हूँ कि जो मैंने इस संसार रूपी अटवी में आत्मा को शुद्ध किया है' ऐसी प्रसन्नता प्रगट होती है। ३. स्व पर दोष निवृत्ति :-शुद्ध हुई आत्मा पूज्यों के चरण-कमल के प्रभाव से, लज्जा के कारण और प्रायश्चित के भय से पुनः अपराध नहीं करे। इस तरह आत्मा स्वयं दोषों से रूकता है और इसी तरह उद्यम करते व उस उत्तम साधु को देखकर पाप के भय से डरते हुए दूसरे भी अकार्य नहीं करते, केवल संयम के कार्यों को ही करते हैं। इस तरह, अपने और दूसरे के दोषों की निवृत्ति होने से स्व और पर उपकार होता है, और स्व पर उपकार से अत्यन्त महान् दूसरा कोई गुण स्थानक नहीं है । ४-५. माया त्याग और शद्धि :-श्री वीतराग भगवन्तों ने आलोचना करने से भवभय का नाशक और परम निवृत्ति का कारण माया त्याग और शुद्धि कहा है। माया रहित सरल जीव की शुद्धि होती है, शुद्ध आत्मा को धर्म स्थिर होता है और इससे घी से सिंचन किए अग्नि के समान परम निर्वाण (परम तेज अथवा पवित्रता) को प्राप्त करता है। परन्तु मायसि क्लिष्ट चित्त वाला बहत प्रमादी जीव पाप कार्यों का कारणभूत अनेक क्लिष्ट कर्मों का ही बन्धन करता है। और यहाँ पर उस अति कर्मों को भोगते जो परिणाम आते हैं वह प्रायः संकलेश कारक पाप कर्म का कारक बनता है। इस तरह क्लिष्ट चित्त से पाप कर्मों का बन्धन और उसे भोगते हये क्लिष्ट चित्त होता है, उसमें पुनः पाप कर्म का बन्धन है, इस तरह परस्पर कार्य कारण रूप में संसार की वृद्धि होती है और संसार बढ़ने से अनेक प्रकार के दुःख प्रगट होते हैं। इस प्रकार माया ही सर्व संकलेशों-दुःखों का मूल मानना वह योग्य है । आलोचना माया का उन्मूलन होता है, इससे आर्जव-सरलता प्रगट होती है और आलोचना से जीव की शुद्धि होती है, इन दो कारणों से आलोचना करनी चाहिए। ६ दुष्कर क्रिया :-यह आलोचना करना वह अति दुष्कर है, क्योंकिकर्म के दोष से जीव प्रमाद से दोषों का सेवन सुखपूर्वक करता है, और यथास्थित आलोचना करते उसे दुःख होता है । अतः कर्म के दोष से सैंकड़ों, हजारों
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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