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________________ श्री संवेगरंगशाला ३११ मूल से कहा, तब वैद्य ने कहा कि हे मूढ़ ! इतने दिन इस तरह आत्मा को सन्ताप में क्यों रखा ? अब भी हे भद्र ! तूने श्रेष्ठ ही कहा है कि रोग का कारण जाना है। तूने अब डरना नहीं, अब मैं ऐसा करूँगा जिससे तू निरोगी हो जायेगा। उसके बाद उसने योग्य औषध का प्रयोग करके उसे स्वस्थ कर दिया। इस तरह इस दृष्टान्त से लज्जा को छोड़कर जिस दोष को जिस तरह सेवन किया उसे उसी तरह कहने वाले परम आरोग्य-मुक्ति को प्राप्त करता है। गारव (बडप्पन) का पक्ष नहीं करना चाहिए, परन्तु चारित्र का पक्ष करना चाहिए, क्योंकि गारव से रहित स्थिर चारित्र वाला मुनि मोक्ष को प्राप्त करता है। यह मेरा है-ऋद्धि आदि सुख में आसक्त नहीं रहे जो नाश होने वाले भय से दुर्गति का मूलभूत ऋद्धि आदि गारव में आसक्त होता है, और अपने अपराध को नहीं स्वीकारता, उसकी आलोचना नहीं करता, वह जड़ मनुष्य अस्थिर काँचमणि को परमप्रिय स्वीकार करके शाश्वत निरूपम सुख को देने वाले चिन्तामणी रत्न का अपमान करता है। इसलिए गारव का त्यागी, इन्द्रियों को जीतने वाला, कषाय से रहित और राग द्वेष से मुक्त होकर आलोचना करनी चाहिए। आलोचना परसाक्षी में करे :-मैं जिस तरह प्रायश्चित अधिकार का सम्यग् रूप जानता हूँ, वह इस तरह दूसरा कौन जानता है ? अथवा मेरे से अधिक ज्ञानवान दूसरा कौन है ? इस प्रकार अभिमान से जो अपने दुश्चरित्र को दूसरे को नहीं कहे, वह पापी प्रमाद से सम्यग् औषध को नहीं करने वाला रोगी वैद्य के समान आराधना रूपी आरोग्यता को नहीं प्राप्त करता है। जैसे कोई रोगी वैद्य ज्ञान के गर्व से अपने रोग को नहीं कहते, स्वयं सैंकड़ों औषध करने पर भी रोग की पीड़ा से मर जाता है। उसी तरह जो अपने अपराध रूपी रोग को दूसरे को सम्यग् रूपी नहीं कहता, वह श्वास के जीते हुए अथवा ज्ञान से ज्ञानी होने पर नाश होता है। क्योंकि व्यवहार में अच्छे कुशल छत्तीस गुण वाले आचार्य को भी यह आलोचना सदा परसाक्षी ही करनी चाहिए । आठ-आठ भेद वाला दर्शन, ज्ञान, चारित्राचारों से और बारह प्रकार के तप से युक्त, इस तरह आचार्य में छत्तीस गुण होते हैं अथवा 'वयछक्क' आदि गाथा में कहा है अर्थात् छह व्रतों का पालक, छह काया का रक्षक तथा अकल्पय वस्तु, गृहस्थ का पात्र, पल्यंक, निषधा, स्नान और विभूषन के त्यागी इस तरह अट्ठारह गुण तथा पंचविध आचार का निरतिचार पालन करे, पालन करावे और यथोक्त शास्त्रानुसार उपदेश दे। इस तरह आचारवान् आदि आठ तथा दस प्रकार के प्रायचिश्त के जानकार इस तरह
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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