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________________ १० श्री संवेगरंगशाला से युक्त थी, सूर्य का बिम्ब जैसे अत्यन्त प्रभा से युक्त होता है, वैसे नगरी बहुत मार्गों से युक्त थी और विभक्ति वर्ण, नाम आदि से युक्त प्रत्यक्ष मानों शब्द विद्या व्याकरण हो वैसे सुन्दर अलग-अलग वर्ण के नाम वाले भिन्न-भिन्न मौहल्ले-गली आदि थे, और वह नगर बड़ी खाई के पानी से व्याप्त और गोलाकार किल्ले से घिरा हुआ होने से मानो लवण समुद्र की जगती से घिरा हुआ जम्बू द्वीप की समानता की स्पर्धा को करता था तथा हमेशा चलते विस्तृत नाटक और मधुर गीतों से प्रजाजन को सदा आनन्द की वृद्धि कराता था, और परचक्र के भय से रहित होने से कृत युग अर्थात् सुषमा काल के प्रभाव को भी जो विडम्बना करता था, महान विशाल ऋद्धि के विस्तार से युक्त बड़े धनाढ्य मनुष्य वहाँ हमेशा दान देते थे, इससे मैं मानता हूँ कि वैश्रमण-कुबेर भी उनके सामने साधु के समान धन रहित दिखता था अर्थात् कुबेर सदृश धनिक दातार वहाँ निवास करते थे और हिमालय समान उज्ज्वल और विशाल मकानों से सभी दिशायें ढक गई थीं, इस तरह देवनगरी के समान उस देश में श्रीमाल नामक नगरी थी। उस नगर के अन्दर के भाग में पद्म समान मुख वाली सुन्दर स्तन वाली विकसित कमल के समान नेत्र वाली स्त्रियाँ थीं वैसे बाहर विभाग में ऐसी ही बावडियाँ थीं उसमें भी पद्म रूप मुख सदृश मधुर जल से भरा हुआ था और नेत्ररूपी विकासी कमल वाली थी। उस नगर के अन्दर के भाग में बहुत सामन्तों वाले और प्रसिद्ध कवियों के समूह से शोभित उद्यान की श्रेणियाँ हैं और बाहर के विभाग में बहत वृक्षों वाला और बन्दर से समूह से शोभित प्रसिद्ध वन पंक्तियां हैं। इस तरह गुण श्रेणी से शोभित होने पर भी उस नगर में एक महान् दोष है कि जहाँ धार्मिकजन याचक को अपने सन्मुख आकर्षण करती है। इस नगर में रहने वाले लोगों को धन का लोभ नहीं था परन्तु निर्मल यश प्राप्ति करने में था मित्रता साधुओं की थी, राग श्रुत ज्ञान में था चिन्ता नित्यमेव धर्म क्रिया में थी, वात्सल्य सार्मिकों के प्रति था, रक्षा दुःख से पीड़ित प्राणियों की करते थे और तृष्णा सद्गुण प्राप्ति में थी। उस नगर का पालन करने वाला महासेन नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा की महिमा ऐसी थी कि नमस्कार करते राजाओं के मणि जड़ित मुकुट से उस राजा की पादपीठ (पैर रखने का स्थान) घिस कर, मुलायम हो गई थी। शरदऋतु के सूर्य से भी अधिक प्रचण्ड प्रताप वाला शत्रओं के मदोन्मत्त हाथियों के कुम्भ स्थल को तीक्ष्ण तलवार से निर्दयता से
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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