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________________ श्री संवेगरंगशाला ३०५ सदा शुद्ध सत्य शान्ति को प्राप्त करता है । यह उपमा यहाँ पर आलोचन के विषय में भी इसी तरह जानना कि वैद्य के सदृश श्री जैनेश्वर भगवान, रोगी समान साधु और रोग अर्थात् अपराध, औषध अर्थात् प्रायश्चित और आरोग्य अर्थात् शुद्ध चारित्र है । जैसे वैभंगि कृत वैद्यक शास्त्र द्वारा रोग को जानने वाले वैद्य चिकित्सा करते हैं वैसे पूर्वधर भी प्रायश्चित देते हैं । श्रुत व्यवहार में पाँच आचार के पालक, क्षमादि गुण गणयुक्त और जैनकल्प - महानिशिथ का जो धारक हो वही श्री जैन कथित प्रायश्चित द्वारा भव्य जीवात्मा को शुद्ध ( दोष मुक्त) करते हैं । जंघा बल क्षीण होने से अन्य अन्य देश में रहे हुए दोनों देश के आचार्यों को भी अगीतार्थ मुनि द्वारा गुप्त रूप में भेजकर उन्हें पूछवाकर आलोचना देना और शुद्ध प्रायश्चित देना यह विधि आज्ञा व्यवहार की है। गुरू महाराज ने अन्य को बारम्बार प्रायश्चित दिया हो, उन सर्व रहस्य को अवधारण (याद रखने वाला) करने वाला हो, उसे गुरूदेव ने अनुमति दी हो, वह साधु उसी तरह व्यवहार प्रायश्चित प्रदान करे उसे धारणा व्यवहार वाला जानना । निर्युक्ति पूर्वक सूत्रार्थ में प्रौढ़ता को धारण करने वाला जो हो, उस-उस काल की अपेक्षा से गीतार्थ हो, और जैनकल्प आदि धारण करने वाला हो, उसे भी इस विषय में योग्य जानना, इसे पांचवाँ जीत व्यवहारी जानना । इसके बिना शेष योग्य नहीं है । जैसे अज्ञानी वैद्य के पास गलत चिकित्सा कराने वाला रोगी मनुष्य की रोग वृद्धि होती है, मृत्यु का कारण बनता है, लोक में निन्दा होती है, और राजा की ओर से शिक्षा - दण्ड मिलता है, वैसे ही लोकोत्तर प्रायश्चित अधिकार में भी सर्व इस तरह घटित होता है, ऐसा जानना । जैसे कि मिथ्या आलोचना का प्रायश्चित प्रदान होता है, इससे उल्टे दोषों की वृद्धि होती है । इससे फिर चारित्र का अभाव हो जाता है और इससे यहाँ आराधना खत्म (मृत्यु) हो जाती है । श्री जैन वचन के विराधक को अन्य जन्मों में भी निन्दा, निन्दित स्थानों में उत्पत्ति और दीर्घ संसार में रहने का दण्ड जानना । इस तरह उत्सर्ग से और अपवाद से आलोचना के योग्य कौन है, वह कहा है । अब वह आलोचना किसको देनी चाहिए उसे कहता हूँ । ३. आलोचना लेने वाला कैसा होता है ? - जाति, कुल, विनय और ज्ञान से युक्त हो तथा दर्शन और चारित्र को प्राप्त किया हो । क्षमावान, दान्त, माया रहित और पश्चाताप नहीं करने वाले आत्मा को आलोचना करने में योग्य जानना । उसमें उत्तम जाति और कुल वाले प्रायः कर कभी भी कार्य नहीं करते हैं और किसी समय पर करते हैं तो फिर जाति-कुल के गुण
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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