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________________ २६८ श्री संवेगरंगशाला जो धर्म जीव दया रहित हो उसे भयंकर सर्प के समान दूर से त्याग करना चाहिए। आचार्य श्री के इस तरह कहने पर राजा ने कमल के पत्र समान दृष्टि यज्ञ क्रिया के प्ररूपक पुरोहित के ऊपर फेंकी। उसके बाद अन्तर में बढ़ते तीव्र क्रोध वाले पुरोहित ने कहा कि-हे मुनिवर ! तुम्हारा अति कठोरता आश्चर्य कारक है कि वेद के अर्थ को नहीं जानता है और पुराने शास्त्रों के अल्प भी रहस्य को नहीं जानता, परन्तु तुम हमारे यज्ञ की निन्दा करते हो। आचार्य श्री ने कहा कि हे भद्र ! रोष के आधीन बना हुआ 'तुम वेद पुराण के परमार्थ को नहीं जानते हो। तुम इस तरह क्यों बोलते हो? हे भद्र ? क्या पूर्व मुनियों के द्वारा रचित तेरे शास्त्रों में सर्वत्र जीव दया नहीं कहीं? अथवा क्या उस शास्त्र का यह वचन तूने नहीं सुना कि-"जो हजारों गायों का और सैंकड़ों अश्वों का दान दे उस दान को सर्व प्राणियों को दिया हुआ अभय दान का उल्लंघन किया जाता है।" सर्व अवयव वाले स्वस्थ होने पर भी जीव हिंसा करने में तत्पर मनुष्यों को देखकर मैं उनको पंगु, हाथ कटे हुए और कोढ़ी बनना अच्छा समझता हूँ। जो कपिल श्रेष्ठ वर्ण वाली हजार गाय ब्राह्मणों को दान दे और वह एक जीव को जीवन दान (अभयदान) दे वह इसकी सोलवीं कला के भी योग्य नहीं होता है । भयभीत प्राणियों को जो अभयदान देता है उससे अधिक अन्य धर्म इस पृथ्वी तल में नहीं है । एक जीव को भी अभयदान की दक्षिणा देना श्रेष्ठ है, परन्तु समझकर एक हजार गाय हजार ब्राह्मणों को देना श्रेष्ठ नहीं है। जो दयालु सर्व प्राणियों को अभयदान देता है वह शरीर मुक्त बने हुए पर-जन्म में किसी से भी भयभीत नहीं होता है। पृथ्वी में सोने की, गाय का और भूमि का दान करना सुलभ है, परन्तु जो प्राणियों को अभयदान देता है, वे पुरुष लोक में दुर्लभ है। महान् दानों का भी फल कालक्रम से क्षीण होता है, परन्तु भयभीत आत्मा को अभयदान देने से उसका फल क्षय नहीं होता है । अपना इच्छित तप करना, तीर्थ सेवा करना और श्रुतज्ञान का अभ्यास करना, इन सबको मिलाकर भी अभयदान की सोलहवीं कला को भी नहीं प्राप्त करता है। जैसे मुझे मृत्यु प्रिय नहीं है, वैसे सर्व जीवों को मृत्यु प्रिय नहीं है। इसलिए मरण के भय से डरे हुए जीवों की पण्डितों को रक्षा करनी चाहिए। एक ओर सर्व यज्ञ और समग्र श्रेष्ठ दक्षिणा और दूसरी ओर भयभीत प्राणियों के प्राणों का रक्षण करना श्रेष्ठ है । सर्व प्राणियों का जो दान करना और एक प्राणी की दया करना, उसमें सर्व प्राणियों की दया से एक की दया ही प्रशंसनीय है। सर्व वेद, शास्त्र कथन अनुसार सर्व यज्ञ और तीर्थों का
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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