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________________ श्री संवेगरंगशाला २६५ - गम्भीर बुद्धि से मौनपूर्वक उस गण के आचार्य और साधुओं की परीक्षा करनी चाहिए कि क्या यह भावुक मन वाला ( सद्भाव वाला) है अथवा अभावुक ( सद्भाव रहित ) है ? इस तरह उस गच्छ में रहे साधुओं की भी उस आगंतुक क्षपक साधु की विविध प्रकार से परीक्षा करनी चाहिए । और उस गच्छ के आचार्य को भी केवल अनशन करने आने का ही प्रयोजन न रखे, परन्तु अपने साधुओं की भी परीक्षा करनी चाहिए कि- मेरे साधु आगन्तुक के प्रयोजन को सिद्ध करने वाले हैं या नहीं हैं ? उसमें आगन्तुक को, उस गण के आचार्य को विचार इस तरह करना चाहिए कि - यदि उस आने वाले को देखकर हर्ष से विकसित नेत्र वाले (स्वागत) ऐसा बोलते स्वयं खड़े हो जायें अथवा औचित्य करने के लिए अपने मुनियों को सामने भेजे तो वह प्रस्तुत कार्य को सिद्ध करेगा ऐसा जानना । और यदि मुख की कान्ति मलीन हो शून्य दृष्टि से देखे तथा मन्द अथवा टूटी-फूटी आवाज से बुलाए तो ऐसे को प्रस्तुत प्रवृत्ति में सहायता के लिए अयोग्य जानना । जब भिक्षा के लिए जाए तब मुनियों की भी परीक्षा के लिए कहना कि - अहो ! तुम मेरे लिए दूध रहित चावल लेते आना । ऐसा कहने के बाद यदि वे साधु परस्पर हँसें अथवा उद्धत जवाब दें तो वे असद्भाव वाले हैं ऐसा जानना । परन्तु वे यदि सहर्ष ऐसा कहें कि - आप श्री ने हमको अनुग्रहित किया है, सर्व प्रयत्न से भी मिलेगा तो ऐसा ही करेंगे, तो उन्हें सद्भाव वाला समझना । इस तरह आए हुए स्थानिक साधुओं की परीक्षा करनी चाहिए | स्थानिक साधु आगन्तुक की भी इसी तरह परीक्षा करें । आगन्तुक के बिना माँगने पर भी श्रेष्ठ चावल आदि उत्तम आहार को लाकर दे । इससे यदि वह आश्चर्यपूर्वक ऐसा बोले कि - अहो ! बहुत काल पृथ्वी पर परिभ्रमण करने पर भी चावल की ऐसी उत्तम गन्ध की मनोहरता और स्वादिष्ट मैंने कहीं पर भी देखा नहीं है । ऐसी व्यंजन सामग्री भी दूसरे स्थान पर नहीं दिखती है, इसलिए मैं इस भोजन को अति अभिलाषा — खाऊँगा । यदि वह ऐसा बोलता है तो वह जितेन्द्रिय नहीं होने से अनशन की प्रसाधना के लिए समर्थ नहीं हो सकता है, इसलिए इसे निषेध करना चाहिए और जिस तरह आया हो उसी तरह वापिस भेज देना चाहिए । परन्तु अनशन करने वाला यदि ऐसा भोजन देखकर ऐसा कहे कि - हे महानुभाव ! मुझे ऐसा श्रेष्ठ भोजन देने से क्या लाभ होगा ? ऐसा श्रेष्ठ आहार को खाने का मुझे यह कौन सा अवसर है ? तो वह महात्मा अनशन करने के लिये योग्य है । ऐसा समझकर उसे स्वीकार करना चाहिए । इस तरह चिकित्सा करते, उनको खड़े रहना, बैठना, चलना, स्वाध्याय करना,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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