SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ श्री संवेगरंगशाला वाला, हित उपायों का जानकार, बुद्धिशाली और महाभाग्यशाली निर्वापक आचार्य क्षपक को समाधि प्राप्त कराने के लिये स्नेहपूर्वक मधुर और उसके चित्त को अच्छी लगे इस तरह उदाहरण तथा हेतु से युक्त कथा उपदेश को सुनाए। परीषह रूपी तरंगों से अस्थिर बना हुआ, संसार रूपी समुद्र के अन्दर चक्र में पड़ा हुआ और संयम रत्नों से भरा हुआ साधुता रूपी नाव को मल्लाह के समान निर्वापक डूबते हुये बचाये । यदि वह बुद्धि बल को प्रगट करने वाला आत्महितकर, शिव सुख को करने वाला मधुर और कान का पुष्टिकारक उपदेश को नहीं दे तो स्व और पर आराधना का नाश होता है। इस कारण से ऐसे निर्यामक आचार्य ही क्षपक मुनि की समाधिकारक बन सकते हैं और उस निर्वापक को भी उसके द्वारा ही निश्चित आराधना होती है। ७. अपायदर्शक :-संसार समुद्र अथवा आराधना के किनारे पहुँचा हुआ भी किसी क्षपक मुनि को विचित्र कर्म के परिणामवश तृषा, भूख इत्यादि से दुर्ध्यान आदि भी होता है । फिर भी किसी को पूजा का मान होता है। कीर्ति की इच्छा वाला, अवर्णवाद से डरने वाला, निकाल देने के भय से अथवा लज्जा या गारव से विवेक बिना का क्षपक मुनि यदि सम्यग् उपयोगपूर्वक उस दुानादि की आलोचना नहीं करे तो उसे भावी में अनर्थों का कारण रूप बतलाकर इस प्रकार जो समझाया जाता है उसे अपायदर्शक जानना। आलोचना नहीं करने से इस भव में 'शठ या शल्य है' ऐसी मान्यता तथा अपकीर्ति, अतिरिक्त इस जन्म में भाव बिना की कष्टकारी की हुई क्रिया भी दुर्गति का कारण होती है। मायाचार से परभव में अनर्थ का कारण होता है, इससे निश्चित दुःखी होता है, इत्यादि जो समझाये वही सूरि नाम से अपायदर्शी कहलाते हैं। इस प्रकार के गुण समूह वाला वह अपाय दर्शी मधुर वचनों से कहे कि-हे महाभाग ! क्षपक ! तू इस सम्यक् रूप का विचार कर। जैसे कांटे आदि का उद्धार नहीं करने से वह द्रव्य शल्य भी निश्चय मनुष्य के शरीर में केवल वेदना ही नहीं करता, परन्तु ज्वर, जलन, गर्दभ नाम का रोग आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं और इसके कारण कई बार मृत्यु भी हो जाती है। इसी प्रकार मोहमूढ़ मति वाला साधु को सम्यग् उद्धार (आलोचना) का नहीं करना और आत्मा में ही रखना, इस प्रकार यह भाव शल्य भी इस भव में केवल अपयश आदि ही होता, किन्तु संयम जीवन का नाश होने से चारित्र के अभाव रूपी आत्मा का भी मरण करता है और परजन्मों में अशुभ कर्मों का आक्रमण, अति पोषण करने वाला कर्मबन्ध और दुर्लभ बोधित्व को प्राप्त करता है। इसलिए बोधि लाभ से भ्रष्ट आत्मा जन्म-मरण रूपी आवृतों
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy