SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला २८६ २. आधारवान : - महाबुद्धिमान जो चौदह, दस अथवा नौव पूर्वी हो, सागर के समान गम्भीर हो और कल्प तथा व्यवहार आदि सूत्र को धारण करने वाला ज्ञाता हो, वह आधारवान कहलाता है । अगीतार्थ आचार्य, लोक में श्रेष्ठ अंगभूत ( मनुष्यत्व, धर्म श्रवण, श्रद्धा एवं संयम में उद्यमशील ) इन क्षपक के चार अंगों को नाश करे और इन चार अंगों का नाश होने पर अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य सुलभ्य नहीं बनता है । क्यों महा भयंकर दुःख रूपी पानी वाला और अनन्त जन्मों वाले इस संसार समुद्र में परिभ्रमण करते जीव को मनुष्य जन्म प्राप्त करना महामुश्किल है । उस मनुष्य जीवन में भी श्री जैनेश्वर परमात्मा के वचन को श्रवण करना निश्चय ही अति मुश्किल से मिलता है, उससे भी श्रद्धा होना अतितर दुर्लभ है और श्रद्धा से भी संयम का उद्यम करना दुर्लभतम है । ऐसा सुन्दर संयम मिलने पर भी आधार देने में असमर्थ निर्यामक के पास से मरणकाल में संवेगजनक उपदेश का श्रवण नहीं मिलने से संयम से गिरता है । और आहार से अपना शरीर पोषण करने वाला, आहारमय जीव किसी स्थान पर कहीं पर भी आहार के विरह या अभाव वाला, अर्थात् कभी तपस्या नहीं करने वाला, आर्त्त - रौद्र ध्यान पीड़ित, प्रशस्त तप संयम रूपी उद्यान में क्रीड़ा नहीं कर सकता है । परन्तु कई भूख-प्यास से पीड़ित भी श्री जैन वचन के श्रवण रूपी अमृत के पान से और श्रेष्ठ हित शिक्षा के वचनों से ध्यान में एकाग्र बन जाता है । प्रथम प्यास से अथवा दूसरी भूख से पीड़ित उस तपस्वी को अगीतार्थ समाधिकारक उपदेश आदि नहीं देना चाहिए, क्योंकि उस कारणवश प्यास आदि से पीड़ित वह कर्मवश किसी समय पर दीनता धारण करे अथवा करुणाजनक याचना या एकत्व को धारण करता है, अथवा सहसा बड़ी आवाज से चिल्लाता है या भाग जाता है, अथवा शासन की अपभाजना ( निन्दा ) करता है, मिथ्यात्व प्राप्त करता है अथवा असमाधि मरण से मृत्यु प्राप्त करता है । और जब इस तरह होता है तब गीतार्थ उसे इच्छित वस्तु देकर तथा उसके शरीर की परिकर्मणा (सेवा) करके अथवा अन्य उपायों से द्रव्य, क्षेत्रादि के अनुरूप शास्त्र विधि से उसकी समाधि का कारण गीतार्थ जानें और रुचिकर उचित समझाए कि जिससे उसको शुभ ध्यान रूपी अग्नि प्रगट हो । गीतार्थ देने योग्य प्रासुक द्रव्य - आहारादि देने का समझकर और उत्कंट बना हुआ वातपित्त श्लेष्म IT प्रतिकार औषध को भी जाने । उत्सर्ग अपवाद के जानकार वह गीतार्थ निश्चय क्षपक के निराश चित्त को भी सम्यक् उपाय से विधिपूर्वक शान्त करता है, सम्यग् समाधि के उपायों को करता है, किसी कारण से कर्मवश द्वारा नष्ट
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy