SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला २८५ चाहता हूँ ।" ऐसा कहकर पुन: इस प्रकार बोला - हे भगवन्त ! आप श्री का महान् उपकार है कि जो आपने हमको अपने शरीर के समान पालन पोषण किया है । सारणा वारणा प्रतिनोदना के द्वारा श्रेष्ठ मार्ग में चढ़ाया है और अन्धे को दृष्टि वाला किया है। हृदय रहित मूर्ख को सहृदय -- दयालु बनाया है, अथवा अहित करने वाले को स्वहितकारी किया है और अति दुर्लभ मोक्ष मार्ग को प्राप्त करवाया है, परन्तु हे स्वामिन् ! वर्तमान में आपके वियोग में अज्ञानी बने हम कैसे बनेंगे ? हमारा क्या होगा ? जगत के सर्व जीवों का हित करने वाला, तथा स्थविर और जगत के सर्व जीवों का नाथ यदि परदेश जाए अथवा मर जाता है, तो खेदकारी बात है कि वह देश शून्य हो जाता है । परन्तु आचरण और गुण से युक्त तथा अन्य को सन्ताप नहीं करने वाला स्वामी जब प्रवासी बन जाता है या मर जाता है, तब तो देश खत्म हो जाता है । हे गच्छाधिपति ! बल रहित वृद्धावस्था से जर्जरित और पड़े हुए दाँत की पंक्ति वाला भी विचरते हुए विद्यमान आप स्वामी से आज भी साधु समुदाय सनाथ है । सर्वस्व देने वाला, सुख-दुःख से समान और निश्चल उत्तम गुरू का जो वियोग वह निश्चय दुःख को सहने के लिये है अर्थात् दुःखद रूप है । इस तरह कुनय रूपी मृग को वश करने में जाल के समान और यम के साथ युद्ध करने में जय पताका प्राप्ति कराने में सफल हेतुभूत इस संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अन्तर द्वार गण संक्रम नामक दूसरे द्वार में अनुशासित नाम का यह तीसरा अन्तर द्वार कहा है । इस तरह हित- शिक्षा देने पर भी अपने गच्छ में रहने से आचार्य की समाधि नहीं रहे इसलिये अब परगण से संक्रमण करने की विधि का चौथा अन्तर द्वार कहलाता है । चौथी परगण संक्रमण विधि : - ( गवेषणा द्वार ) इसके बाद पूर्व कहे अनुसार वह महान् आत्मा आचार्य श्री पूर्व की हित- शिक्षा के अनुसार हितकर कार्यों में तत्पर अपने नये आचार्य और गच्छ को भी फिर बुलाकर चन्द्र किरणों के प्रवाह समान शीतल और आनन्द को देने वाली वाणी द्वारा इस प्रकार से कहे - भो महानुभावों ! अब मैं 'सूत्रादान करना' इत्यादि तुम्हारे कार्यों को सम्यक् रूप पूर्ण करने से सर्व कार्यों में कृत-कृत्य हुआ हूँ, इसलिये उपयोग वाले भी तुम्हारे सम्बन्ध में अन्य अति अल्प भी तुमको कहने योग्य एक कार्य मुझे ध्यान आता है । अत: अब मैंने जो हित- शिक्षा दी है इससे भी पहले मेरी आराधना की निर्विघ्न सिद्धि के लिए मुझे परगण में संक्रमण ( प्रवेश) करने के लिए सम्यक् अनुमति दो। और गुरू के प्रति अतीव भक्ति वाले विनीत तुम्हें भी मेरा बारम्बार मिच्छामि दुक्कडं हो। इस तरह गुरूदेव के वचन सुनकर
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy