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________________ श्री संवेगरंगशाला २८१ इसलिए हे महानुभाव ! जो समर्थ होने पर भी अचित्त महिमा वाला वैयावच्य को नहीं करता है उसे शुभ-सुख का शत्रु समझना। उसने तीर्थकर भगवान की आज्ञा के प्रति क्रोध किया है, श्रुतधर्म की विराधना तथा अनाचार किया और आत्मा को, परलोक वचन को दूर फेंककर अहित किया है । और गुण नहीं होने पर गुणों को प्रगट करने के लिए तथा विद्यमान गुणों की वृद्धि करने के लिए हमेशा सज्जनों के ही साथ संग करना, विद्यमान गुणों को नाश होने के भय से अप्राप्त गुण अति दूर होने के भय से और दोषों की प्राप्ति होने के भय से दुर्जन की संगति का त्याग करना । यदि नया घड़ा सुगन्धीमय अथवा दुर्गन्धीमय पदार्थ से भरा हुआ हो तो वैसा ही गन्ध वाला बनता है, तो भावुक मनुष्य संगति से उसके गुण दोष क्यों नहीं प्राप्त करता है अर्थात् जैसी संगति होगी वैसा ही मनुष्य बनेगा। जैसे अग्नि के संग से पानी अपनी शीतलता को गँवा देता है, वैसे प्रायः दुर्जन के संग से सज्जन भी अपने गुणों को गंवा देता है। चण्डाल के घर दूध को पीते ब्राह्मण के समान, दुर्जन की सोबत करने से सज्जन लोगों में भी दोष की शंका का पात्र बनता है। दुर्जन लोगों की संगति से वासित बना वैरागी भी प्रायः सज्जनों का सम्पर्क में प्रसन्न नहीं होता है, परन्तु दुर्जन लोगों में रहने से प्रसन्न होते हैं, जैसे गन्ध रहित भी देव की शेष मानकर लोग मस्तक पर चढ़ाते हैं, वैसे सज्जन के साथ रहने वाला दुर्जन मनुष्य भी पूजनीय बनता है। इस तरह जो-जो चारित्र गुण का नाश करता है वह अन्य वस्तु का भी त्याग करता है कि जिससे तुम दृढ़ संयमी बनो। पासत्थादि के साथ का परिचय को भी हमेशा प्रयत्नपूर्वक त्याग करना क्योंकि संसर्गवश पुरुष तुरन्त उसके समान बनता है। जैसे कि संविग्न को भी पासत्थादि की संगति से उसके प्रति प्रीति उत्पन्न होती है, प्रीति से विश्वास जागृत होता है, विश्वास होने से राग और राग से तन्मयता (तुल्यता) होती है, उसके समान होने से लज्जा का नाश होता है और इससे निःशंकता, रूप से अशुभ विषय में प्रवृत्ति होती है, इस तरह धर्म में प्रेम रखने वाला भी कुसंसर्ग के दोष से शीघ्र संयम से परिभ्रष्ट होता है। और संविज्ञों के साथ रहने वाला धर्म में प्रीति बिना का भी तथा कायर भी पुरुष भावना से, भय से मान से अथवा लज्जा से भी चरण-करण-मूल गुण और उत्तर गुणों में उद्यम करता है और जैसे अति सुगन्धमय कपूर, कस्तूरी के साथ मिलने से विशेष सुगन्धमय बनता है, वैसे संविज्ञ, संविज्ञ की संगति से अवश्यमेव सविशेष गुण वाला बनता है। कहा है कि-'लाख पासत्थाओं से भी एक सुशील व्यक्ति श्रेष्ठ माना
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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