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________________ २६४ श्री संवेगरंगशाला खमाता हूँ। क्या किसी से भी रात-दिन-सतत् किसी का भी एकान्त में प्रिय न कर सकता है ? इसलिए मैंने ही कुछ भी तुम्हारा अप्रिय किया हो उसके लिये मुझे क्षमा करना । अधिक क्या कहूँ ? यहाँ साधु जीवन में द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव से मैंने तुम्हारा जो कोई भी अनुचित किया हो, उन सबको भी निश्चय ही मैं खमाता हैं। फिर तीव्र गुरू भक्ति वाला चित्त युक्त आत्म वृत्ति वाला, उन सर्वो ने भी पूर्व जन्म में नहीं सुना हुआ गुरू का वचन सुनकर भयभीत बने हुये के समान उत्पन्न हुए शोक से मन्द बने गद्गद् स्वर वाला, अति विद्वान् होते हुए भी सतत् बड़े-बड़े आँसुओं से भी गीली आँखों वाला गुरू को कहे कि हे स्वामिन् ! सर्व प्रकार से स्वयं कष्ट सहन कर भी यदि आपने सदा हमको ही चारित्र द्वारा पालन पोषण किया उसका उपकार करते हुए भी आपको मैं खमाता हूँ। ऐसा यह वचन क्यों कहते हैं ? उसके स्थान पर 'आपने सद्गुणों में स्थापन उसकी अनुमोदना करता हूँ।' ऐसा कहना चाहिये। आप अप्राप्त गुणों को प्राप्त कराने वाले, प्राप्त किए गुणों की वृद्धि करने वाले, कल्याण रूपी लता को उत्पन्न करने वाले, एकान्त हित करने वाले वत्सल, मुक्तिपुरी में ले जाने वाले एक श्रेष्ठ सार्थवाह, निष्कारण, एक प्रिय बन्धु, संयम में सहायक, सकल जगत के जीवों के रक्षक, संसार समुद्र में पार उतारने वाले कर्णधार और सर्व प्राणि-समूह के सच्चे माता-पिता होने से जो अति चतुर भव्य प्राणियों के माता-पिता का त्याग करके, आश्रय करने योग्य महासत्त्व वाले महात्मा भय से पीड़ित को भय मुक्त करने वाले और हित में तत्पर, हे भगवन्त ! आप उपयोग के अभाव में, प्रमाद से भी लोक में किसी का भी किसी तरह अनुचित का चिन्तन कर सकते हो ? द्रव्य, क्षेत्र और काल से नित्य सर्व प्राणियों का एकान्त प्रिय करने वाले आपको भी क्या खमाने योग्य हो सकता है ? निश्चय 'इस तरह कहने से गुण होगा' ऐसा मानकर आपको जो कुछ कठोरतापूर्वक आदि भी कहा, वह भी उत्तम वैद्य के कड़वे औषध के समान परिणाम से हमारे लिये हितकर होता है। इसलिए हमने ही आपके लिये जो कोई भी अनुचित किया हो, करवाया हो और अनुमोदन किया हो उसे आप प्रति खमाने योग्य हैं। पुनः हे भगवन्त ! वह भी हमने राग से, द्वेष से, मोह से या अनाभोग से, मन, वचन और काया द्वारा जो अनुचित किया हो, उसमें राग से अपनी बड़ाई करने से, द्वेष से, आपके प्रति द्वेष करने से, मोह से, अज्ञान द्वारा और अनाभोग से, उपयोग बिना जो अनुचित किया हो तो वह आपके प्रति खमाने योग्य है।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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